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________________ आप्तवाणी-६ २१७ चलेगा। उसके लिए यहाँ पर विधि करके मन में माँग करो, तो भीतर शक्ति उत्पन्न हो जाएगी। और कुछ है नहीं! निकाचित से तो बच ही नहीं सकते। निकाचित का अर्थ ऐसा है कि अपनी इच्छा न हो, बिल्कुल-बिल्कुल भी इच्छा नहीं हो, फिर भी भोगना ही पड़ता है। खुद के मन में 'मुझे अब कुछ नहीं चाहिए', ऐसा हो तो भी कर्म उसे उठाकर ले जाते हैं, इसका नाम निकाचित। जैसे भाव से बंधन किया था, वैसे भाव से छूटा! इसलिए निकाचित कर्म की भी आपत्ति नहीं है। निकाचित तो, यह संसार सारा निकाचित ही है। अब आपको स्त्री की इच्छा नहीं हो या स्त्री को पुरुष की इच्छा नहीं हो, फिर भी भोगना ही पड़ता है, यह निकाचित कर्म ही कहलाता है, परंतु अटकण का हर्ज है! अभी भी कहाँ पर उसे गलगलिया हो जाता है, वह देखने की ज़रूरत है! जहाँ गलगलिया हो, वहाँ पर वह मूर्छित हो जाता है! गलगलिया शब्द समझ में आया आपको? प्रश्नकर्ता : शब्द सुना हुआ है, परंतु एक्जेक्ट समझ में नहीं आया। दादाश्री : एक खानदानी लड़के को नाटक में नाच करने की आदत पड़ी हो, उससे हम वह छुड़वा दें और दूसरे किसी परिचय में रखें, फिर वर्ष-दो वर्ष तक कोई परेशानी नहीं होती, परंतु जब वह नाटक के थियेटर के आगे से जा रहा हो और वह बोर्ड पढ़े तो उसे गलगलिया हो जाता है। पिछला अज्ञान सब घेर लेता है। उसे मूर्छित कर देता है और चाहे कैसे भी, झूठ बोलकर भी वह अंदर घुस जाता है। उस घड़ी क्या झूठ बोलना, उसका कुछ ठिकाना नहीं रहता। ___ अर्थात् जब तक आत्मा का सुख नहीं हो तब तक किसी न किसी सुख में डूबा हुआ ही रहता है। परंतु आत्मज्ञान के बाद, आपका सुख कितना सुंदर रहता है! जैसा रखना हो वैसा रहे, समाधि में रहा जा सके, ऐसा है। यानी पुरानी सभी वस्तुएँ खत्म की जा सकें, ऐसा है। अपना 'ज्ञान' ऐसा है कि यदि पाँच 'आज्ञा' में निरंतर रहे तो महावीर भगवान जैसी स्थिति रह सकती है। वैसे रह नहीं पाते, उसका क्या कारण है? पूर्वकर्म के उदय के धक्के लगते हैं। हमें जाना हो उत्तर में परंतु नाव दक्षिण की ओर जाती है। फिर
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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