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________________ १९८ आप्तवाणी-६ है। ऐसे करते-करते सूक्ष्म होता है और यदि उसके गुण ही बोलता रहे, तो वह सच्ची रमणता कहलाती है। वह तुरंत ही, ऑन द मोमेन्ट फल देती है! खुद का सुख अनुभव में आता है। प्रश्नकर्ता : जिस तरह इस पुद्गल के रस हैं, उसी तरह आत्मा के रस, आनंद प्रकट होना चाहिए न? दादाश्री : ऐसा है कि आप अपरिग्रही किस आधार पर हो? 'अक्रम विज्ञान' के आधार पर! परंतु व्यवहार से अपरिग्रही नहीं हो, यानी कि जब तक अपरिग्रही दशा नहीं होती, तब तक अंतिम 'वस्तु' हाथ में नहीं आती! प्रश्नकर्ता : तब तक सच्चा रस, आनंद प्राप्त करने के लिए हमें क्या करना चाहिए? दादाश्री : 'मैं अनंत ज्ञानवाला हूँ', 'मैं अनंत दर्शनवाला हूँ', 'मैं अनंत सुख का धाम हूँ', 'मैं अनंत शक्तिवाला हूँ'... बोलो, तो सच्चा रस उत्पन्न हो जाएगा! आत्मा तो खुद आनंदमय ही है, यानी वह 'वस्तु' सर्वरसमय ही है और वह खुद में होता ही है। परंतु खुद अपनी जागृति की कमी के कारण, वह कहाँ से आ रहा है, उसका पता नहीं चलता। प्रश्नकर्ता : पुद्गल के रसों को दबाएँ, तो आत्मा के रस उत्पन्न होंगे? दादाश्री : नहीं, दबाने का कोई अर्थ ही नहीं है। वे तो अपने आप ही फीके पड़ जाएँगे। आत्मा के गुण एक-एक घंटे तक बोलो तो तुरंत बहुत अधिक फल देंगे। यह तो नक़द फलवाली वस्तु है, या तो हर एक के भीतर 'शुद्धात्मा' देखते-देखते जाओ, तो भी आनंद आए ऐसा है। प्रश्नकर्ता : सामनेवाले व्यक्ति में शुद्धात्मा देखें, तो सामनेवाले व्यक्ति को आनंद होना चाहिए न? दादाश्री : नहीं होगा। क्योंकि उसकी वृत्तियाँ उस समय न जाने किसमें पड़ी होंगी! वह न जाने कौन से विचारों में पड़ा होगा! हाँ, उसमें
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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