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________________ आप्तवाणी-६ चूड़ियाँ नहीं छीन ले तो अच्छा। अब तो आपको ज्ञान-दर्शन-चारित्र और तप सबकुछ ही चलता रहेगा । परंतु तप का आपको पता नहीं रहता कि कहाँ पर तप हो रहा है! हमारी ' आज्ञा' ही ऐसी है कि तप करना ही पड़े ! १९७ हम मोटर में घूमते हैं परंतु किसी के साथ बात नहीं करते, क्योंकि हम उपयोग में ही रहते हैं । हम थोड़ा भी उपयोग नहीं चूकते ! इतना अच्छा विज्ञान हाथ में आने के बाद कौन छोड़े? पहले तो दो-पाँच मिनिट भी उपयोग में नहीं रहा जाता था । एक गुंठाणा सामायिक करनी हो तो अति-अति कष्टपूर्वक रह पाते थे और यह तो सहज ही आप जहाँ जाओ वहाँ उपयोगपूर्वक रहा जा सकता है, ऐसा हुआ I प्रश्नकर्ता : वह समझ में आता है, दादा | दादाश्री : अब ज़रा भूलों को रोको, यानी कि प्रतिक्रमण करो । आपको तय करके निकलना है कि आज ऐसा ही करना है ! शुद्ध उपयोग में रहना है, ऐसा तय नहीं करोगे तो फिर उपयोग चूक जाओगे ! और अपना विज्ञान तो बहुत अच्छा है । दूसरा कोई झंझट नहीं ! निजवस्तु रमणता प्रश्नकर्ता : 'निजवस्तु' रमणता किस प्रकार से होती है? दादाश्री : रमणता तो दो-चार प्रकार से होती है । और कोई रमणता नहीं आए तो ‘मैं शुद्धात्मा हूँ', 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा घंटे-दो घंटे बोलेंगे तो भी चलेगा, ऐसे करते-करते रमणता आगे बढ़ेगी ! प्रश्नकर्ता : रमणता तो अलग-अलग तरह की होती हैं न? दादाश्री : वह तो जिसे जैसा आए, वैसा वह करता है । स्थूल में हो तो, ‘मैं शुद्धात्मा हूँ’, ‘मैं शुद्धात्मा हूँ' बोलता रहे, या फिर किताब लेकर ‘मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा लिखता रहे। उससे क्या होता है, तो यह कि देह भी रमणता करता है, वाणी भी रमणता करती है, मन भी उसमें आ जाता है । पहले स्थूल रूप से करे न, तब फिर पुद्गल रमणता छूटने लगती
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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