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________________ आप्तवाणी-६ दुःख होता है, वह सहन नहीं होता तब मनुष्य भाव कर देता है कि अरे, छूट जाएँ तो अच्छा। वह हस्ताक्षर कर देता है । प्रश्नकर्ता : अभानता में हस्ताक्षर कर दिए। १६४ T दादाश्री : अभानता में नहीं, भान सहित हस्ताक्षर कर देते हैं । फिर दूसरे दिन सुबह पूछें कि, 'आपका यहाँ से जाने का विचार हुआ है या क्या?' तब कहेंगे, ‘नहीं भाई, मेरा शरीर अच्छा है । ' प्रश्नकर्ता : जन्म लेकर तुरंत मर जाते हैं, वह क्या है? दादाश्री : उन सबके भाव तो अंदर हो ही जाते हैं, अंदर उसका हिसाब हो ही जाता है। हिसाब हुए बगैर कहीं मृत्यु नहीं आती। अचानक कुछ भी नहीं आता । सब इन्सिडेन्ट हैं, एक्सिडेन्ट नहीं होते । हार्ट अटेक आए तब बहुत दर्द होता है, उस घड़ी एक थोड़ा सा ऐसा भाव हो जाता है कि, 'मुक्त हो जाएँ तो अच्छा', और फिर जब अंदर ज़रा शांत पड़े तब बोलता है, 'डॉक्टर मुझे ठीक कर दो, हाँ! डॉक्टर, मुझे ठीक कर दो!' अरे, लेकिन हस्ताक्षर कर दिए थे वहाँ पर तो ? मृत्यु से पहले क्यों नहीं सोचता ? 'मुझे कल अहमदाबाद जाना है' ऐसा तय करता है अथवा तो 'मुझे यात्रा में जाना है' ऐसा चार महीने पहले से ही तय कर लेता है, लेकिन इस मृत्यु में तो कोई तय ही नहीं करता और उसका विचार आए तो भी विचार बदल देता है कि, 'नहीं, नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। वह तो सिर्फ विचार आ रहे हैं, मेरा शरीर तो बहुत अच्छा है। अभी और भी पचास वर्ष जीए, ऐसा है । ' बाकी, जो निष्पक्षपाती हो, उसे तो सब पता चल जाता है। बोरियाबिस्तर बाँध रहे हों तो पता नहीं चलेगा कि ये जाने की तैयारी कर रहे हैं! अंदर बोरिया-बिस्तर बंध रहे होते हैं, वे हमें दिखते भी हैं, फिर भी अंदर देखें नहीं तो अपनी ही भूल है न? और पहले तो कुछ लोग इतने सरलकर्मी थे कि वे कहते भी थे 'पाँच दिन बाद, एकादशी के दिन मेरा छुटकारा है' और उसके अनुसार होता भी था ! तब क्या दूसरों के लिए
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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