SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जब दूसरों का एक भी दोष नहीं दिखेगा और खुद का एक-एक दोष दिखेगा, तब छूटा जा सकेगा। 'खुद के दोषों के कारण मैं बँधा हुआ हूँ' जब ऐसी दृष्टि हो जाएगी, तब सामनेवाले के दोष दिखने बंद हो जाएंगे। इसलिए मात्र दृष्टि ही बदल लेनी है। हरकोई अपने-अपने कर्मों के अधीन भटक रहा है, उसमें उसका क्या दोष? व्यवहार ऐसा नहीं कहता कि सामनेवाले के दोष देखें! व्यवहार में तो 'ज्ञानीपुरुष' भी रहते ही हैं न! फिर भी वे जगत् को निर्दोष ही निहारते हैं न! चोर चोरी करता है, वह उसके कर्म के उदय से करता है। उसमें उसे चोर कहने का, हमें क्या अधिकार है? चोर में परमात्मा देखें तो चोर गनहगार नहीं दिखेगा। भगवान महावीर ने पूरे जगत् को निर्दोष देखा! वह क्या इसी दृष्टि के आधार पर ही तो नहीं? __ भयंकर अपमान के उदय में अंत:स्करण तपकर लाल हो जाए, तब उस तप को अंत तक तन्मयाकार हुए बिना समतापूर्वक 'देखता' रहे तो वह तप मोक्ष में ले जाएगा! तप तो वह कहलाता है कि जिसकी किसी को गंध भी नहीं आए। अपने तप को दूसरे जान जाएँ, दूसरे लोग आश्वासन दें और हम उसे स्वीकार लें तो, उस तप में से 'कमीशन' दूसरे खा जाएँगे। बाह्य संयोगों का असर अंत:स्करण में सर्वप्रथम बुद्धि को होता है। बुद्धि में से फिर वह मन को पहुँचता है। बुद्धि यदि बीच में स्वीकार करनेवाली नहीं रहे तो फिर मन भी नहीं पकड़ेगा। परंतु बुद्धि स्वीकारती है, इसलिए मन पकड़ता है और फिर मन खलबली मचा देता है। बुद्धि की दख़ल बंद किस तरह हो? बुद्धि के बखेड़े सुनना बंद कर दें, अपमान करे, तब बुद्धि बंद। और बुद्धि को मान दें, उसे एक्सेप्ट करें, उसकी सलाह मानें तो बुद्धि चलती रहेगी, फुल फॉर्म में! जिससे अपने मन में बवंडर उठे हो, उस बात को बंद कर देना। मन में बवंडर उठे तो फिर अंदर अपना सुख आवृत हो जाता है। फिर असुख लगता है, फिर दुःख होता है, जलन होती है और घबराहट होती ___16
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy