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घर्षण से गढ़ाई हम ब्रह्मांड के मालिक हैं (आत्मस्वरूप की दृष्टि से)। इसलिए किसी जीव में दखलंदाजी नहीं करनी चाहिए। हो सके तो हेल्प करो और नहीं हो सके तो कोई हर्ज नहीं, लेकिन किसीमें दख़लंदाज़ी होनी ही नहीं चाहिए।
प्रश्नकर्ता : यानी उसका अर्थ ऐसा हुआ कि पर-आत्मा को परमात्मा मानें?
दादाश्री : नहीं। मानना नहीं है, वह है ही परमात्मा। मानना तो गप्प कहलाएगा। गप्प तो याद रहे या न भी रहे, यह तो वास्तव में परमात्मा ही है। परंतु ये परमात्मा विभूति स्वरूप में आए हुए हैं। दूसरा कुछ है ही नहीं। फिर भले ही कोई भीख माँग रहा हो, परंतु वह भी विभूति है और राजा हो, वह भी विभूति है। अपने यहाँ राजा होते हैं, उन्हें विभूति स्वरूप कहते हैं। भिखारी को नहीं कहते। मूल स्वरूप है, उसमें से विशेषता उत्पन्न हुई है। विशेष रूप हुआ है, इसलिए विभूति कहलाता है, और विभूति, वे भगवान ही माने जाएँगे न! इसलिए किसीमें भी दख़ल तो करनी ही नहीं चाहिए। सामनेवाला दख़ल करे तो उसे हमें सहन कर लेना चाहिए, क्योंकि भगवान यदि दख़ल करें तो हमें उसे सहन करना ही चाहिए।
हम वास्तव में 'व्यवहार स्वरूप' नहीं हैं। 'यह' सारा सिर्फ टेम्परेरी एडजस्टमेन्ट है। जिस तरह बच्चे खिलौनों से खेलते हैं, वैसे ही पूरा जगत् खिलौनों से खेल रहा है! खुद अपने हित का कुछ करता ही नहीं। निरंतर परवशता के दु:ख में ही रहता है और टकराता रहता है। संघर्षण और घर्षण से आत्मा की सारी अनंत शक्तियाँ फ्रेक्चर हो जाती हैं।