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________________ ३८ आप्तवाणी-५ दादाश्री : हाँ, परन्तु वह अतंर का भेदन हुआ हो उसके लिए वह काम का है। अंतर का भेदन नहीं हुआ हो, विचार उठते हों, उनमें तन्मयाकार हो जाए, फिर क्या दिखेगा? जिसके अंतर का भेदन हुआ हो, वह तो विचारों में तन्मयाकार नहीं होता और उन्हें देखता है कि मुझे क्या विचार आया? परन्तु अंतरभेद होना इतना आसान नहीं है। 'ज्ञानी पुरुष' के बिना वैसा अंतरभेद नहीं होता। भेद तो डलना चाहिए न हमें? अहंकार भेद नहीं डलने देता। जिसकी दृष्टि बाहर ही है, लौकिक में ही रचा-बसा है, उसे अंदर क्या देखना है? उसकी रमणता कहाँ है, उस पर दृष्टि आधारित है। जब तक आत्मा प्राप्त नहीं हो जाए, तब तक अंदर कुछ भी देखने जैसा है ही नहीं। सिर्फ शुभ उपयोग रखता है, परन्तु वह मोक्ष का मार्ग नहीं है, धर्ममार्ग है। इसलिए उसका और मोक्ष का कोई लेना-देना नहीं है। आप अंदर चाहे जितना उपयोग रखोगे, परन्तु वह शुद्ध उपयोग तो नहीं माना जाएगा। शुद्ध उपयोग तो 'ज्ञानी पुरुष' के 'ज्ञान' देने के बाद रहता है। 'ज्ञान' कौन-सा? आत्मज्ञान। 'मैं कौन हूँ' वह निश्चित होता है। और वह फिर भान सहित होना चाहिए। शुद्ध उपयोग मोक्षमार्ग है। और आप कहते हो वे सभी शुभ उपयोग हैं। अशुभ में से शुभ में आने का वह मार्ग है। अध्यात्म और बौद्धिकता प्रश्नकर्ता : अध्यात्म के अनुभव के बारे में दादा के पास या किसी भी वीतराग पुरुष के पास से हम उत्तर प्राप्त करें, तो वह बौद्धिक अर्थघटन माना जाएगा क्या? दादाश्री : आपके पास आया, इसलिए बौद्धिक हो गया। आपको बुद्धि से समझने के लिए बौद्धिक हो गया। बाकी वैसे तो ज्ञान प्रकाश है! बुद्धि तो हम में होती ही नहीं! इसलिए हम ज्ञान के 'डायरेक्ट' प्रकाश के द्वारा ही बात करते हैं। हमारे पास पुस्तक के ज्ञान की भी बातें नहीं होती।
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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