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________________ आप्तवाणी-५ १७ उसमें हम कुछ भी नहीं करते हैं। बहाव ही हमें आगे की ओर ले जाता है। पिछले जन्म में नौवें मील पर थे, वहाँ अच्छे-अच्छे आम के पेड़, आम, बदाम, अंगूर वगैरह देखे थे। अच्छे बाग़ देखे थे। अब आज इस जन्म में दसवें मील पर आया, वहाँ सबकुछ रेगिस्तान जैसा मिला। इसलिए फिर नौवें मील का ज्ञान उसे कचोटता रहता है। वहाँ आम माँगता है, अंगूर माँगता है, परन्तु किसी चीज़ का ठिकाना नहीं पड़ता। इस तरह यह आगे-आगे बहता ही रहता है! यह सब नियति का काम है, परन्तु नियति 'वन ऑफ द फेक्टर्स' की तरह है, खुद कर्ता के रूप में नहीं है। कर्ता के रूप में इस जगत् में कोई चीज़ नहीं है। वैसे ही कर्ता के बिना यह जगत् बना नहीं है! परन्तु वह नैमित्तिक कर्ता है। स्वतंत्र कर्त्ता कोई नहीं है। स्वतंत्र कर्ता हो तो बंधन में आएगा, नैमित्तिक कर्ता बंधन में नहीं आता! प्रश्नकर्ता : इसलिए नैमित्तिक कर्त्ता में जो कर्त्ता हो, वह ऐसा मानता है कि मैं निमित्त हूँ? दादाश्री : हाँ, वह तो खुद अपने आपको खयाल में रहता ही है कि 'मैं निमित्त हूँ।' मुझे लोग ऐसा कहते हैं कि 'दादा आपने ऐसा किया और आपने वैसा किया।' परन्तु मैं तो जानता हूँ न कि इसमें मैं तो निमित्त हँ! कर्ता बने उसे कर्म बँधते हैं। आप किसी भी वस्तु के कर्ता बनते हो क्या? प्रश्नकर्ता : सुबह से शाम तक कर्ता ही बनते हैं। दादाश्री : अब आप कर्ता हो या नहीं, उसका आपको प्रमाण देखना है? प्रश्नकर्ता : हाँ। दादाश्री : आप ऐसा बोलते हो, 'रात को दस बजे सो जाना है और छह बजे उठना है', फिर वहाँ पलंग में सिर तक ओढ़कर लेटे-लेटे आप क्या-क्या योजना गढ़ते हो? फिर एकाएक विचार आता है कि फलाने को पाँच हज़ार रुपये दिए थे, उसका आज खाता बंद करना बाकी रह गया।
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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