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________________ आप्तवाणी-५ ११ धर्म का विरोधी शब्द है। बुरा करना - वह अधर्म, और अच्छा करना - वह धर्म है। परन्तु दोनों कर्त्ताभाव में हैं और इस आत्मा का तो स्वाभाविक धर्म है, सहज धर्म है। अब आत्मा खुद के धर्म में आ जाए तब फिर उसकी पत्नी हो, उसका क्या होगा? उसे क्या निकाल देगा? प्रश्नकर्ता : नहीं, परन्तु उस पर से आसक्ति कम करनी पड़ेगी। दादाश्री : उसके लिए फिर कर्ता बनना पड़ेगा। प्रश्नकर्ता : तो वह समझाइए। दादाश्री : आत्मधर्म में आने के बाद 'बाय रिलेटिव व्यू पोइन्ट', 'आप चंद्रभाई हो, इस स्त्री के पति हो, इस बच्चे के फादर हो।' और 'बाय रियल व्यू पोइन्ट' आप शुद्धात्मा हो। 'द वर्ल्ड इज़ द पज़ल इटसेल्फ, गॉड हेज़ नोट पज़ल्ड दिस वर्ल्ड एट ऑल।' (संसार एक पहेली है। भगवान ने इस संसार को पहेली नहीं बनाया है।) यदि परमात्मा ने 'पज़ल' किया होता तो उन्हें यहाँ पर बुलाना पड़ता और दंड देना पड़ता कि आपने इन लोगों को किसलिए उलझाया? यानी कि भगवान ने यह जगत् नहीं उलाझाया है। 'मैं आत्मा हूँ, मैं आत्मा हूँ', ऐसे शब्द बोलने से कुछ नहीं होता है। वह तो भगवान की कृपा उतारनी पड़ती है, उसके बाद ही आप मोक्षगामी बनते हो। अब यहाँ पर मोक्षगामी अर्थात् क्या? इस जन्म में सीधा मोक्ष नहीं है। परन्तु यहाँ पर अज्ञानमुक्ति होती है। दो प्रकार की मुक्ति है : पहले अज्ञानमुक्ति अर्थात् आत्मा, आत्मस्वभाव में आ गया, वह ! दूसरी है-वह है, संपूर्ण देहमुक्ति, सिद्धगति मिलती है वह! यहाँ से एकावतारी हो सकता है! अज्ञानमुक्ति हो उससे फ़ायदा क्या होता है? संसारी दुःखों का अभाव रहा करता है! मनुष्य क्या ढूँढता है? प्रश्नकर्ता : दुःखों का अभाव।
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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