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आप्तवाणी-५
मुझे बुद्धि फ़ायदा-नुकसान नहीं दिखाती, क्योंकि मुझमें बुद्धि नहीं है, वह बहुत कम, नहीं के बराबर बुद्धि है। ३६० डिग्री पर संपूर्ण भगवान कहलाते हैं और ये 'पटेल' ३५६ डिग्री पर हैं। इनमें चार डिग्री कम हैं, इसलिए ये जुदा हुए, नहीं तो 'ये' भी 'महावीर' ही कहलाते!
__ अर्थात् इस बुद्धि का धर्म फ़ायदा-नुकसान दिखाना है। गाड़ी में, किसीके साथ सौदा करे उसमें या कढ़ी का पतीला गिर गया, तो तुरन्त बुद्धि अपना धर्म अदा करती है या नहीं?
प्रश्नकर्ता : हाँ, करती है।
दादाश्री : अब बुद्धि का इसके अलावा एक धर्म और भी है, वह क्या है कि बुद्धि 'डिसीज़न' लेती है। हालाँकि 'डिसीज़न' लेने का बुद्धि का स्वतंत्र धर्म नहीं है। बुद्धि 'डिसाइड' करती है, उस पर अहंकार हस्ताक्षर कर दे, तभी वह पूरा होता है। अहंकार की स्वीकृति के बिना डिसीज़न रूपक में आता ही नहीं है।
___ अर्थात् इस अंत:करण में 'पार्लियामेन्टरी' पद्धति है। उसके चार 'मेम्बर' हैं। मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार। यदि मन और बुद्धि एक हो गए तो अहंकार को स्वीकृति देनी ही पड़ती है। चित्त और बुद्धि एक हो गए तो भी अहंकार को स्वीकृति देनी ही पड़ती है। यानी जिसके पक्ष में तीनों गए उसकी बात मान्य होती है। ये संपूर्ण तत्वज्ञान की बातें हैं। परन्तु वह आपको आपकी बुद्धि से समझ में आना चाहिए।
आपको ज्ञान तो नहीं है न? प्रश्नकर्ता : ज्ञान तो है न! दादाश्री : आप ज्ञान किसे कहते हो? प्रश्नकर्ता : ज्ञान अर्थात् समझ?
दादाश्री : ज्ञान अर्थात् समझ नहीं, ज्ञान अर्थात् प्रकाश। यदि प्रकाश आपके पास हो तो ठोकर नहीं लगेगी (चिंता, कषाय, मतभेद नहीं होंगे)।