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________________ आप्तवाणी-५ १७९ परिमाण में ऐसी इच्छा होती है, उसमें से यशनाम कर्म बँधता है और जगत् को दुःख दें, तो अपयश नामकर्म बँधता है। अपयश नामकर्मवाला चाहे जितना काम करे, फिर भी अपयश मिलता है ! बहुत लोग यहाँ मुझे कहते हैं कि, 'मैंने बहुत काम किया, फिर भी मुझे अपयश मिलता है।' 'अरे, तू अपयश लेकर आया है, इसलिए अपयश मिलेगा। तुझे तो तेरा काम करना है और अपयश लेना है!' । प्रश्नकर्ता : आप विधि करवाते हैं, तो उसके स्थान के रूप में अंगूठे को ही महत्व क्यों देते हैं? दादाश्री : जिस रास्ते से भगवान से जल्दी तार जुड़े उस जगह पर विधि करवाते हैं। दूसरी जगह पर करें तो तार देर से पहुँचेगा। हमें जल्दी खबर भेजनी है न इसलिए। तुझे पसंद नहीं आया? प्रश्नकर्ता : 'क्विक सर्विस' तो सभी को पसंद आती है। दादाश्री : यानी कि ये लोग कुछ बोलते हैं कि अमृत झरता है, कुछ ऐसा अमृत झरता है क्या? तुझे थोड़ा-बहुत अनुभव हुआ? प्रश्नकर्ता : हाँ। दादाश्री : तब ठीक है। जिस किसी रास्ते अमृत टपके वह काम का! प्रश्नकर्ता : 'सर्वज्ञ' किसे कहते हैं? दादाश्री : यह कविराज ने हमारे लिए 'सर्वज्ञ' लिखा है, वास्तव में तो ये कारणसर्वज्ञ हैं। 'सर्वज्ञ' तो, ३६० डिग्री के हों, तब 'सर्वज्ञ' कहलाते हैं। यह तो हमारा ३५६ डिग्री का है, हम सर्वज्ञ के कारणों का सेवन करते हैं! खुद एक समय भी पर-समय में नहीं जाए, निरंतर स्वसमय में रहें, वे 'सर्वज्ञ'। हम संपूर्ण अभ्यंतर निग्रंथ हैं। हमें जिस वेष में 'ज्ञान' हुआ था, उस वेष में परिवर्तन नहीं होगा। हमें तो, ये कपड़े निकाल लो, तो
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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