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आप्तवाणी-५
दादाश्री : यदि तुझ पर इस संसार का असर नहीं होता तो हर्ज ही नहीं है। इस ज्ञान को समझने की ज़रूरत ही नहीं है । लेकिन तुझे किसी भी प्रकार से यह संसार 'इफेक्टिव' (असरवाला) लगता है? यह सब 'रिलेटिव' है। तुझे खुद को असर होता है न?
प्रश्नकर्ता : हाँ।
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दादाश्री : वह असर होता है, तब तक निर्बलता है। भयंकर निर्बलता ! मनुष्य को असर होना ही नहीं चाहिए ।
ये तो ऐसे बंगले, मोटरें सब साधन होते हैं फिर भी असर होता है, फिर यदि साधन टूट जाएँ तो क्या होगा? मनुष्य कल्पांत कर-करके ज़िन्दगी निकालता है! इसलिए आसपास क्या है, वह पहले से जान लिया हो तो फिर आप पर वह असर नहीं करेगा, परन्तु नहीं जानने के कारण हमें सबकुछ सिर पर लेना पड़ता है। रात को लोग दुःख सिर पर रखकर सो जाते हैं और नींद नहीं आती । जब शरीर थक जाता है, तब नींद आती है। इसे 'लाइफ' कैसे कहेंगे?
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'तू' कौन है? किसके आधार पर 'तू' है? उसकी खबर नहीं है ‘यह किस आधार पर है' उसकी खबर तो होनी ही चाहिए न? आधारआधारी का संबंध भी समझना चाहिए न कि हम किस आधार पर हैं? पुलिसवाले आ रहे हैं ऐसा कोई सिर्फ कह दे तो उनके आने से पहले तो खुद घबरा जाता है ! इतनी अधिक निर्बलता क्यों होनी चाहिए? जगत् तो बहुत गहरा है। बहुत जन्मों से देखा हुआ है । परन्तु याद नहीं रहता न? इसलिए जानने जैसा जगत् है !
और, इस जगत् में क्या करने जैसा है और क्या नहीं करने जैसा, 'क्या जानने जैसा है और क्या नहीं जानने जैसा', इतना ही समझना है
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कर्त्ताभाव, वही कुसंग
खुद का दोष दिखने लगे, तब से समकित हुआ कहलाता है।
प्रश्नकर्ता : उसमें नम्रता आ जाती है ?