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आप्तवाणी-५
दोनों का स्पर्श होता है। एकाकार कभी भी हुआ ही नहीं। अब आत्मा का ऐसा गुण है कि बोलते ही, जैसा बोले वैसा असर हो जाता है। इसलिए क्षत्रियता का उपयोग करना पड़ेगा। थोड़े समय हमारे टच में रहना पड़ेगा।
आत्मा का स्वभाव कैसा है? जैसा चिंतन करे, तुरन्त ही वैसा हो जाता है। सुखमय चिंतन किया तो सुखमय बन जाता है और दुःखमय चिंतन किया तो वैसा हो जाता है। इसलिए बहुत जागृत रहना है। इसमें दूसरी कोई चिंतना नहीं होती। जैसे कि, मेरा सिर दुःख रहा है!
प्रश्नकर्ता : चिंतना नहीं होती, परन्तु माहौल बिगड़ जाता है।
दादाश्री : माहौल का असर होता है, परन्तु हमें बोलना नहीं चाहिए कि मुझे दुःखा। हमें तो ऐसा कहना चाहिए कि, 'चंदूभाई' का सिर दु:ख रहा है।
___ यह तो एक घबराहट है। एक मनुष्य से कड़वी दवाई नहीं पी जाती थी, तब मैंने उसके उपस्थिति में चाय और भाखरी (गुजराती रोटी) खाते हैं, उस तरह कड़वी दवाई और भाखरी आराम से खाई। वह मनुष्य तो चौंक गया कि यह तो आप चाय की तरह पी रहे हैं। अरे, चाय की तरह ही पीते हैं। यह तो तुझमें सिर्फ डर घुस गया है। उसके बाद वह व्यक्ति उसी तरह कड़वी दवाई पीने लग गया। सामनेवाला दिखाए तो हो सकता है। कोई दिखानेवाला चाहिए। एक बार मैं अग्नि में उँगली रखकर बताऊँ तो आप भी रखोगे। बतानेवाला चाहिए। आत्मा को कुछ भी स्पर्श नहीं करता
और कुछ भी बाधक भी नहीं है। इसलिए उस रूप से रहना। निर्लेप, असंग, अग्नि का भी संग उसे स्पर्श नहीं करता, तो इस दुःख का, शरीर का किस तरह से स्पर्श करेगा? इसलिए अपना वह स्वभाव पकड़कर रखना है।
और परभाव में परपरिणति उत्पन्न नहीं हो, वह देखते रहना। परपरिणति किसे कहा जाता है? परपरिणाम को खुद के परिणाम माने, वह परपरिणति कहलाता है। सिर दुःखता है, वह परपरिणाम कहलाता है, और उसे 'मुझे दुख रहा है' ऐसा कहा उसे परपरिणति कहते हैं। जिसने स्वपरिणति, स्वपरिणाम नहीं देखे हैं, वह परपरिणति के अलावा और क्या