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आप्तवाणी - ३
मिलती है। किन्हीं पाँच लोगों के आप ऊपरी (बॉस, वरिष्ठ मालिक) बने हो, तो वह आपका पुण्य रहा होगा तभी बन सकते हो नहीं तो नहीं बन सकते।
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लोग पूछते-पूछते आते हैं कि 'प्रिन्सिपल साहब हैं क्या? प्रिन्सिपल साहब हैं क्या?' पूछते हैं न !
प्रश्नकर्ता : हाँ।
दादाश्री : वह इसलिए है कि पुण्य है । नहीं तो कोई बाप भी नहीं पूछे, न जाने कहाँ खजांची की नौकरी में हिसाब लिख रहे होते! 'आपको ' अब चंदूभाई से कहना है कि 'सत्ता का उपयोग किसलिए करते हो? ज़रा करुणा रखो न !'
प्रश्नकर्ता : आपका ज्ञान मिलने के बाद मैं ऐसा ही करता हूँ । ... लेकिन वह सारी परसत्ता
दादाश्री : आपके हाथ में कौन-कौन-सी सत्ता है ?
प्रश्नकर्ता : एक भी नहीं ।
दादाश्री : इसका क्या कारण है ? 'आप कौन हो', यही आप जानते नहीं हो। आप चंदूभाई को ही 'मैं हूँ' ऐसा मानते हो। वह तो परसत्ता है। उसमें आपका क्या है? आप परसत्ता के अधीन हो । ठेठ तक परसत्ता है, लट्टू है! सबकुछ ‘व्यवस्थित' के अधीन है।
खाते हो, पीते हो, विवाह में जाते हो, वह परसत्ता के अधीन है। जो क्रोध-मान-माया- लोभ हो जाते हैं, वे परसत्ता के अधीन हो जाते हैं । आपकी स्वसत्ता आपने देखी नहीं है, उसका आपको भान नहीं है । स्वसत्ता का भान हो जाए तो वह खुद परमात्मा बन सकता है । एक क्षण के लिए भी स्वसत्ता का भान हो जाए तो वह परमात्मा बन जाए !
यह बोलने की शक्ति भी मेरी नहीं है । यह जो बोलता है वह 'टेपरिकार्ड' है और आप बोलते हो तो आपका भी यह 'टेपरिकार्ड' है। आप ‘इगोइज़म' करते हो और मैं 'इगोइज़म' नहीं करता, इतना ही फर्क है।