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________________ आप्तवाणी - ३ मिलती है। किन्हीं पाँच लोगों के आप ऊपरी (बॉस, वरिष्ठ मालिक) बने हो, तो वह आपका पुण्य रहा होगा तभी बन सकते हो नहीं तो नहीं बन सकते। ३८ लोग पूछते-पूछते आते हैं कि 'प्रिन्सिपल साहब हैं क्या? प्रिन्सिपल साहब हैं क्या?' पूछते हैं न ! प्रश्नकर्ता : हाँ। दादाश्री : वह इसलिए है कि पुण्य है । नहीं तो कोई बाप भी नहीं पूछे, न जाने कहाँ खजांची की नौकरी में हिसाब लिख रहे होते! 'आपको ' अब चंदूभाई से कहना है कि 'सत्ता का उपयोग किसलिए करते हो? ज़रा करुणा रखो न !' प्रश्नकर्ता : आपका ज्ञान मिलने के बाद मैं ऐसा ही करता हूँ । ... लेकिन वह सारी परसत्ता दादाश्री : आपके हाथ में कौन-कौन-सी सत्ता है ? प्रश्नकर्ता : एक भी नहीं । दादाश्री : इसका क्या कारण है ? 'आप कौन हो', यही आप जानते नहीं हो। आप चंदूभाई को ही 'मैं हूँ' ऐसा मानते हो। वह तो परसत्ता है। उसमें आपका क्या है? आप परसत्ता के अधीन हो । ठेठ तक परसत्ता है, लट्टू है! सबकुछ ‘व्यवस्थित' के अधीन है। खाते हो, पीते हो, विवाह में जाते हो, वह परसत्ता के अधीन है। जो क्रोध-मान-माया- लोभ हो जाते हैं, वे परसत्ता के अधीन हो जाते हैं । आपकी स्वसत्ता आपने देखी नहीं है, उसका आपको भान नहीं है । स्वसत्ता का भान हो जाए तो वह खुद परमात्मा बन सकता है । एक क्षण के लिए भी स्वसत्ता का भान हो जाए तो वह परमात्मा बन जाए ! यह बोलने की शक्ति भी मेरी नहीं है । यह जो बोलता है वह 'टेपरिकार्ड' है और आप बोलते हो तो आपका भी यह 'टेपरिकार्ड' है। आप ‘इगोइज़म' करते हो और मैं 'इगोइज़म' नहीं करता, इतना ही फर्क है।
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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