________________
आप्तवाणी-३
आत्मा के पर्याय उसके खुद के प्रदेश में रहकर बदलते हैं। आत्मा सत्चित्-आनंद रूपी है! और चित्- आनंद पुद्गल का गुणधर्म नहीं है। पुद्गल सत् है। पुद्गल पूरण-गलन स्वभाव का है। जो-जो वस्तु के रूप में हो, के रूप में हो और स्वतंत्र और अविनाशी हो, उसे सत् कहते हैं।
गुण
पुद्गल भाव, वियोगी स्वभाव के
३५
I
दो प्रकार के भाव हैं। एक आत्मभाव, दूसरा पुद्गलभाव । सभी पुद्गल भाव आकर चले जाते हैं । वे विनाशी होते हैं, वे खड़े नहीं रहते । १५ मिनट में या १० मिनट में या आधे घंटे में चले जाते हैं । ये सभी संयोगी भाव हैं। हमें जिनका संयोग होता है, वे संयोगी भाव हैं । वे सभी संयोगी भाव वियोगी स्वभाव के हैं । हमें उन्हें निकालना नहीं है, अपने आप ही चले जाएँ तो ठीक। खराब विचार आते हैं तब कहना, 'आओ भाई, तुम्हारा ही घर है ।' जितना किराया लिया है, उतने समय तक उन्हें रहने देना पड़ेगा! खराब विचार वे संयोगी भाव है, अतः वे अपने आप ही चले जाएँगे।
ज्ञानी के बिना, यह समझ में किस तरह आए ?
मन
-बुद्धि-चित्त-अहंकार के जो-जो परिणाम आते हैं, मन में विचार आते हैं, बुद्धि से दर्शन में दिखता है वगैरह, सभी पुद्गल भाव हैं । जो इस पुद्गल भाव को जानता है, वह आत्मभाव है।
तमाम शास्त्रों का ज्ञान यही है । यह समझ में नहीं आता इसलिए पूरे शास्त्र रट लेता है। लेकिन क्या हो? यह भूल किस तरह से निकले ? 'ज्ञानी' के अलावा यह भूल कौन मिटाए ?
... उसमें तन्मयाकार हुए तो जोखिमदारी
क्रोध-मान-माया-लोभ- ये पुद्गल भाव हैं। ये घटते-बढ़ते हैं और आत्मा का स्वभाव ऐसा अगुरु-लघु है जो बढ़ता नहीं और घटता भी नहीं । अर्थात् जो क्रोध-मान- माया - लोभ होते हैं, उसे हमें 'देखते' रहना है कि 'ओहोहो ! यह बढ़ा, यह घटा!' तो 'हम' उससे जुदा रहे। फिर 'हम' जोखिमदार नहीं है। पुद्गलभाव में तन्मयाकार हुए तो आपकी जोखिमदारी