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________________ आप्तवाणी-३ दादाश्री : लौकिक भाषा में पूरण कहते हैं, लेकिन यथार्थ रूप से वह गलन है। खाया, वह पूरण किया, लेकिन वह पूरण वास्तव में तो फर्स्ट गलन है और संडास गए, वह सेकन्ड गलन कहलाता है। सिटी में गए तो फर्स्ट गलन और वहाँ से वापस आए तो वह सेकन्ड गलन। जो दिखता है दुनिया उसे सत्य मानती है, लेकिन इन्द्रिय ज्ञान से सत्य मानने के कारण ही तो यह जगत् चल रहा है। 'मूल स्वरूप' से तो 'ज्ञानीपुरुष' ही देख सकते हैं। जो पूरण होता है, उसे तो सिर्फ 'ज्ञानी' ही उनके ज्ञान में देख सकते हैं। बाकी यह पूरा जगत् गलन के रूप में ही है। पुद्गल का पारिणामिक स्वरूप पूरण-गलन सभी में होता ही रहेगा। पूरण-गलन में भेद नहीं है। अहंकार में भेद है। 'मैं गाँववाला हूँ, मैं साहूकार हूँ, मैं गृहस्थी हूँ, मैं त्यागी हूँ', ये अहंकार के भेद हैं। भगवान कहते हैं कि जिसने जैसा पूरण किया होगा, वैसा उसका गलन होगा। 'तू' शुद्धात्मा, उसमें किसलिए उठापटक करता है? अब रख न एक ओर! अपने किसी महात्मा का ऐसा उदय आया हो और वह पागलपन करने लगे तो हम समझ जाते हैं कि, ओहोहो! इनका कैसा पूरण किया हुआ है कि जिससे उसका ऐसा गलन आया! अतः अपने को उस पर करुणा रखनी चाहिए। सिर्फ करुणा ही उपाय है इसका। जिसे यह पूरण-गलन का 'साइन्स' समझ में आ जाए, उसे विषय सुख फीके लगते हैं। यह जलेबी धूल में पड़ी हुई हो तो भी झाड़कर खा लेता है। उस घड़ी क्या उसे यह भान रहता है कि सुबह इस जलेबी की क्या दशा होगी? नहीं। क्योंकि अशुचि का भान नहीं है। यह खीर खाई हो, लेकिन उल्टी करे तो कैसा दिखेगा? अंदर यह सारा अशुचि का ही संग्रहस्थान है। लेकिन ऐसी पारिणामिक दृष्टि उत्पन्न होनी चाहिए न? पुद्गल, परमाणु के रूप में कैसा है? प्रश्नकर्ता : विज्ञान ऐसा कहता है कि शरीर के परमाणु प्रति क्षण बदलते रहते हैं।
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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