________________
आप्तवाणी-३
प्रश्नकर्ता : हमारे अंदर तो निरंतर संसार के विचार रहते हैं।
दादाश्री : इस जगत् को एक क्षण के लिए भी विस्मृत करना हो तो नहीं हो पाता। वह तो ज्ञान हो जाए तभी जगत् निरंतर विस्मृत रहेगा, निरंतर समाधि रहेगी।
सूर्य को और चंद्र को भेदकर उससे भी आगे की बात है। वहाँ हम आपको ले जाते हैं। सूर्य अर्थात् बुद्धि और चंद्र अर्थात् मन। आत्मा इनसे भी ऊपर है। टॉप पर है।
प्रश्नकर्ता : आत्मा, वह मन की कल्पना नहीं है?
दादाश्री : मन की चाहे कितनी भी कल्पना करो फिर भी वह काम नहीं आएगी। आत्मा निर्विकल्प है और मन की कल्पना विकल्पी है।
प्रश्नकर्ता : आत्मा को मन-स्मृति द्वारा नहीं जाना जा सकता?
दादाश्री : यह बात उससे परे है। अर्थात् कोई भी व्यक्ति खुद अपने आप आत्मा को नहीं जान सकता। विकल्पी कभी भी निर्विकल्पी नहीं हो सकता। वह तो निर्विकल्पी तरण-तारण ऐसे 'ज्ञानीपुरुष' ही निर्विकल्प दशा तक पहुँचा सकते हैं।
आत्म मन स्वरूप नहीं है, चित्त स्वरूप नहीं है, बुद्धि स्वरूप नहीं है, अहंकार स्वरूप नहीं है, शब्द स्वरूप नहीं है, विचार स्वरूप नहीं है, निर्विचार है।
_ 'आत्मा', स्वरूप ही ग़ज़ब का "जेणे आत्मा जाण्यो तेणे सर्व जाण्यु।"- श्रीमद् राजचंद्र।
जगत् के तमाम शास्त्र सिर्फ आत्मा को जानने के लिए ही लिखे गए हैं। दुनिया में जानने जैसी कोई चीज़ हो तो वह आत्मा ही है। जाननेवाले को जानो। इन्द्र, महेन्द्र तक का भोगकर आने के बावजूद अनंत जन्मों की भटकन रुकी नहीं है। शुद्धात्मा के अलावा दूसरे सभी परमाणु हैं, वे अनंत हैं, फिज़िकल हैं, उनके अंदर भगवान फँसे हुए हैं।
प्रश्नकर्ता : आत्मा का स्वरूप है?