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आप्तवाणी-३
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घर में सामनेवाला पूछे, सलाह माँगे तो ही जवाब देना चाहिए। यदि बिना पूछे सलाह देने बैठ जाए तो उसे भगवान ने अहंकार कहा है। पति पूछे कि 'ये प्याले कहाँ रखने हैं?' तो पत्नी ज़वाब देती है कि 'फलाँ जगह पर रख दो।' तो आप वहाँ रख देना। अगर उसके बजाय कहो कि 'तुझे अक्ल नहीं, तू कहाँ रखने को कह रही है?' उस पर पत्नी कहे कि 'अपनी अक्ल से रखो।' इसका कहाँ पार आए? यह संयोगों का टकराव है। इसलिए लटू खाते समय, उठते समय टकराया ही करते हैं। फिर लटू टकराते हैं, छिल जाते हैं और खून निकलता है। यह तो मानसिक
खून निकलता है न! वो खून निकलता हो तब तो अच्छा, पट्टी लगाएँ तो रुक जाता है। इस मानसिक घाव पर तो पट्टियाँ भी नहीं लगतीं कोई।
ऐसी वाणी बोलने जैसी नहीं है घर में किसी से कुछ कहना, अहंकार का यह सबसे बड़ा रोग है। अपना-अपना हिसाब लेकर ही आए हैं सभी! हर एक की अपनी दाढ़ी उगती है, हमें किसी से कहना नहीं पड़ता कि दाढ़ी क्यों नहीं उगाता? वह तो उसे उगती ही है। सब सबकी आँखों से देखते हैं, सब सबके कानों से सुनते हैं। यह दख़ल करने की क्या ज़रूरत है? एक अक्षर भी बोलना मत। इसलिए हम यह 'व्यवस्थित' का ज्ञान देते हैं। अव्यवस्थित कभी भी होता ही नहीं है। जो अव्यवस्थित दिखता है, वह भी 'व्यवस्थित' ही है। इसलिए बात ही समझनी है। कभी पतंग गोता खाए तब डोरी खींच लेनी है। डोरी अब अपने हाथ में है। जिसके हाथ में डोरी नहीं है उसकी पतंग गोता खाए, तो वह क्या करे? डोरी हाथ में है नहीं और शोर मचाता है कि मेरी पतंग ने गोता खाया।
घर में एक अक्षर भी बोलना बंद कर दो। 'ज्ञानी' के अलावा अन्य किसीको एक शब्द भी नहीं बोलना चाहिए। क्योंकि 'ज्ञानी' की वाणी कैसी होती है? परेच्छानुसार होती है, दूसरों की इच्छा के आधार पर वे बोलते हैं। उन्हें किसलिए बोलना पड़ता है? उनकी वाणी तो दूसरों की इच्छा पूर्ण होने के लिए निकलती है। और दूसरे तो बोलें उससे पहले तो सबका अदंर से हिल जाता है, भयंकर पाप लगता है, ज़रा-सा भी बोलना नहीं चाहिए। ज़रा-सा भी बोले तो वह किच-किच कहलाता है। बोल तो किसे