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आप्तवाणी-३
हो, तो वह सामनेवाले को देखना है। आपको सामनेवाले का हिताहित देखना है, लेकिन आप में, हित देखनेवाले में, आप में शक्ति क्या है? आप अपना ही हित नहीं देख सकते, फिर दूसरे का हित क्या देखते हो? सब अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार हित देखते हैं, उतना हित देखना चाहिए। लेकिन सामनेवाले के हित की खातिर टकराव खड़ा हो, ऐसा नहीं होना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : सामनेवाले का समाधान करने का हम प्रयत्न करें, लेकिन उसमें परिणाम अलग ही आनेवाला है, ऐसा हमें पता हो तो उसका क्या करना चाहिए?
दादाश्री : परिणाम कुछ भी आए, आपको तो 'सामनेवाले का समाधान करना है' इतना निश्चित रखना है। समभाव से निकाल करने का निश्चित करो, फिर निकाल हो या न हो वह पहले से देखना नहीं है। और निकाल होगा। आज नहीं तो दूसरे दिन होगा, तीसरे दिन होगा, गाढ़ा हो तो दो वर्ष में, तीन वर्ष में या चार वर्ष में होगा। वाइफ के ऋणानुबंध बहुत गाढ़ होते हैं, बच्चों के गाढ़ होते हैं, माँ-बाप के गाढ़ होते हैं, वहाँ ज़रा ज़्यादा समय लगता है। ये सब अपने साथ में ही होते हैं, वहाँ निकाल धीरे-धीरे होता है। लेकिन हमने निश्चित किया है कि कभी न कभी 'हमें समभाव से निकाल करना ही है', इसलिए एक दिन उसका निकाल होकर रहेगा, उसका अंत आएगा। जहाँ गाढ़ ऋणानुबंध हों, वहाँ बहुत जागृति रखनी पड़ती है, इतना छोटा-सा साँप हो लेकिन सावधान, और सावधान ही रहना पड़ता है। और यदि बेखबर रहेंगे, अजागृत रहेंगे तो समाधान नहीं होगा। सामनेवाला व्यक्ति बोल जाए और आप भी बोलो, बोल लिया उसमें हर्ज नहीं है परंतु बोलने के पीछे ऐसा निश्चय है कि 'समभाव से निकाल करना है' इसलिए आपको द्वेष नहीं रहता। बोला जाना, वह पुद्गल का है और द्वेष रहना, उसके पीछे खुद का आधार है। इसलिए हमें तो समभाव से निकाल करना है', ऐसे निश्चित करके काम करते जाओ, हिसाब चुकता हो ही जाएँगे। और आज माँगनेवाले को नहीं दे पाए तो कल दिया जाएगा, होली पर दिया जाएगा, नहीं तो दिपावली पर दिया जाएगा। लेकिन माँगनेवाला ले ही जाएगा।