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आप्तवाणी-३
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उसमें मूर्छित होने जैसा है ही क्या? कितने बच्चे तो 'दादा, दादा' कहें, तब दादाजी अंदर खुश होते हैं! अरे! बच्चे 'दादा, दादा' न करे तो क्या 'मामा, मामा' करेंगे? ये बच्चे 'दादा, दादा' करते हैं, लेकिन अंदर समझते हैं कि 'दादा यानी थोड़े समय में मर जानेवाले हैं वे, जो आम अब बेकार हो गए हैं, फेंकने जैसे हैं, उनका नाम दादा!' और दादा अंदर खुश होता है कि मैं दादा बन गया! ऐसा जगत्
है।
अरे! पापा से भी यदि बच्चा जाकर मीठी भाषा में कहे कि 'पापा, चलो, मम्मी चाय पीने बुला रही है।' तो पापा अंदर ऐसा गद्गद हो जाता है, ऐसा गद्गद हो जाता है, जैसे साँड मुस्कुराया। एक तो बालभाषा, और मीठी-तोतली भाषा, उसमें भी जब पापा कहे... तब वहाँ तो प्राइम मिनिस्टर हो तो उसका भी कोई हिसाब नहीं। ये तो मन में न जाने क्या मान बैठा है कि मेरे अलावा कोई पापा है ही नहीं। अरे पागल! ये कुत्ते, गधे, बिल्ली, निरे पापा ही है न। कौन पापा नहीं है? ये सब कलह उसीकी है न?
समझ-बूझकर कोई पापा न बने, ऐसा कोई चारित्र किसी के उदय में आए तो उसकी तो आरती उतारनी पड़ेगी। बाकी सभी पापा बनते ही हैं न? बॉस ने ऑफिस में डाँटा हो, और घर पर बेटा 'पापा, पापा' करे तब उस घड़ी सब भूल जाता है और आनंद होता है। क्योंकि यह भी एक प्रकार की मदिरा ही है, जो सबकुछ भुला देती है!
कोई बच्चा न हो और बच्चे का जन्म हो तो वह हँसाता है, पिता को बहुत आनंद करवाता है। जब वह जाता है, तब रुलाता है, उतना ही। इसलिए आपको इतना जान लेना है कि जो आए हैं वे जब जाएँगे, तब क्या-क्या होगा? इसीलिए आज से हँसना ही नहीं। फिर झंझट ही नहीं न! यह तो किस जन्म में बच्चे नहीं थे? कुत्ते, बिल्ली, सब जगह बच्चे-बच्चे और बच्चे ही सीने से लगाए हैं। इस बिल्ली को भी बेटियाँ होती ही हैं न?
व्यवहार नोर्मेलिटीपूर्वक होना चाहिए इसलिए हरएक में नोर्मेलिटी ला दो। एक आँख में प्रेम और एक