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आप्तवाणी-३
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बीज ऐसा है, माल बेकार है! ऊपर से कहते हैं कि मेरा बेटा महावीर बनेगा! महावीर तो होते होंगे? महावीर की माँ तो कैसी होती है? बाप ज़रा टेढ़ामेढ़ा हो तो चले लेकिन माँ कैसी होती है?
प्रश्नकर्ता : बच्चों को गढ़ने के लिए या संस्कार के लिए हमें कुछ सोचना ही नहीं चाहिए?
दादाश्री : विचार करने में कोई परेशानी नहीं है। प्रश्नकर्ता : पढ़ाई तो स्कूल में होती है लेकिन गढ़ने का क्या?
दादाश्री : गढ़ने का काम सुनार को सौंप देना चाहिए, उनके गढ़नेवाले होते हैं वे गढ़ेंगे। बेटा पंद्रह वर्ष का हो, तब तक उसे कहना (टोकना) चाहिए, तब तक जैसे आप हो, वैसा ही उसे गढ़ देना। फिर उसे उसकी पत्नी ही गढ़ देगी। यह गढ़ना नहीं आता, फिर भी लोग गढ़ते ही है न? इसलिए गढ़ाई अच्छी नहीं होती। मूर्ति अच्छी नहीं बनती। नाक ढाई इंच का होना चाहिए, वहाँ साढ़े चार इंच का कर देते हैं। फिर उसकी वाइफ आएगी तो काटकर ठीक करने जाएगी। फिर वह भी उसे काटेगा और कहेगा, 'आ जा।'
फ़र्ज़ में नाटकीय रहो यह नाटक है! नाटक में बीवी-बच्चों को हमेशा के लिए खुद के बना लें तो क्या चल सकेगा? हाँ, नाटक में बोलते हैं, वैसे बोलने में परेशानी नहीं है। 'यह मेरा बड़ा बेटा, शतायु था।' लेकिन सब उपलक, सुपरफ्लुअस, नाटकीय। इन सबको सच्चा माना उसके ही प्रतिक्रमण करने पड़ते हैं। यदि सच्चा न माना होता तो प्रतिक्रमण करने ही नहीं पडते. जहाँ सत्य मानने में आया वहाँ राग और द्वेष शुरू हो जाते हैं, और प्रतिक्रमण से ही मोक्ष है। ये दादाजी जो दिखाते हैं, उस आलोचना-प्रतिक्रमणप्रत्याख्यान से मोक्ष है।
यह संसार तो तायफा (फजीता) है बिल्कुल, मज़ाक जैसा है। एक घंटे यदि बेटे के साथ लड़ें तो बेटा क्या कहेगा? 'आपको यहाँ रहना हो तो मैं नहीं रहूँगा।' बाप कहे, 'मैं तुझे जायदाद नहीं दूंगा।' तो बेटा कहे,