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________________ आप्तवाणी-३ १५७ 'मर गया हूँ', ऐसा बोलता है? मरने के बाद बोलना न कि मैं मर गया। ज़िन्दा कभी मर जाता है? 'मैं मर गया' यह वाक्य तो सारी जिंदगीभर बोलना नहीं है। सच्चे दुःख को जानना चाहिए कि दुःख किसे कहते हैं? इस बच्चे को अगर मैं मारूँ तो भी वह रोता नहीं बल्कि हँसता है, उसका क्या कारण है? और आप उसे सिर्फ एक चपत लगाओ तो वह रोने लगेगा, उसका क्या कारण है? उसे लगी इसलिए? ना, उसे लगने का दुःख नहीं है। उसका अपमान किया उसका उसे दुःख है। इसे दुःख कहें ही कैसे? दु:ख तो किसे कहते हैं कि खाने को न मिले, संडास जाने को न मिले, पेशाब करने को न मिले, वह दुःख कहलाता है। यह तो सरकार ने घर-घर में संडास बनवा दिए हैं, नहीं तो पहले गाँव में लोटा लेकर जंगल में जाना पड़ता था। अब तो बेडरूम में से उठे कि ये रहा संडास! पहले के ठाकुर के वहाँ भी जो नहीं थी, ऐसी सुविधा आज के मनुष्य भोग रहे हैं। ठाकुर को भी संडास जाने के लिए लोटा लेकर जाना पड़ता था। उसने जुलाब लिया होता तो ठाकुर भी दौड़ता था। और सारे दिन ऐसा हो गया और वैसा हो गया, ऐसे शोर मचाते रहते हैं। अरे, क्या हो गया पर? यह गिर गया, वह गिर गया, क्या गिर गया? बिना काम के किसलिए शोर मचाते रहते हो? ये दुःख हैं, वे उल्टी समझ के हैं। यदि सही समझ फिट करें तो दुःख जैसा है ही नहीं। यदि पैर पक गया हो तो आपको पता लगाना चाहिए कि मेरे जैसा दुःख लोगों को है या नहीं? अस्पताल में देखकर आएँ तब वहाँ पता चलेगा कि अहोहो! दुःख तो यहीं पर है। मेरे पैर में ज़रा-सा ही लगा है और मैं नाहक दुःखी हो रहा हूँ। यह तो जाँच तो करनी पड़ेगी न? बिना जाँच किए दु:ख मान लें तो फिर क्या होगा? आप सभी पुण्यवानों को दुःख हो ही कैसे सकता है? आप पुण्यवान के घर में जन्मे हैं। थोड़ी ही मेहनत से सारे दिन का खाना-पीना मिल जाता है। प्रश्नकर्ता : सबको खुद का दु:ख बड़ा लगता है न? दादाश्री : वह तो खुद खड़ा किया हुआ है, इसलिए जितना बड़ा करना हो उतना हो सकता है, चालीस गुना करना हो तो उतना हो जाएगा!
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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