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आप्तवाणी-३
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प्रश्नकर्ता : यह सब ठीक है, परंतु अभी संसार में देखें तो दस में से नौ लोगों को दुःख है।
दादाश्री : दस में से नौ नहीं, हज़ार में से दो लोग सुखी होंगे, थोड़े-बहुत शांति में होंगे। बाकी सब रात-दिन जलते ही रहते हैं। शक्करकंद भट्टी में रखे हों, तो कितनी तरफ से सिकते हैं?
प्रश्नकर्ता : यह दुःख जो कायम है, उसमें से फायदा किस तरह उठाना चाहिए?
दादाश्री : इस दु:ख पर विचार करने लगोगे तो दु:ख जैसा नहीं लगेगा। दुःख का यदि यथार्थ प्रतिक्रमण करोगे तो दुःख जैसा नहीं लगेगा। यह बिना सोचे ठोकमठोक किया है कि यह दुःख है, यह दुःख है! ऐसा मानो न, कि आपके वहाँ बहुत पुराना सोफासेट है। अब आपके मित्र के घर पर सोफासेट है ही नहीं, इसलिए वह आज नयी तरह का सोफासेट लाया। वह आपकी पत्नी देखकर आईं। फिर घर आकर आपसे कहे कि आपके मित्र के घर पर कितना सुंदर सोफासेट है और अपने यहाँ खराब हो गए हैं। तो यह दुःख आया! घर में दुःख नहीं था वह देखने गए, वहाँ से दु:ख लेकर आए। ___आपने बंगला नहीं बनवाया और आपके मित्र ने बंगला बनवाया और आपकी वाइफ वहाँ जाए, देखे, और कहे कि 'उन्होंने कितना अच्छा बंगला बनवाया और हम तो बिना बंगले के हैं!' वह दुःख आया!!! इसीसे ये सब दु:ख खड़े किए हुए हैं।
मैं न्यायाधीश होऊँ तो सबको सुखी करके सज़ा करूँ। किसीको उसके गुनाह के लिए सज़ा देने का मौका आए, तो पहले तो मैं उसे 'पाँच वर्ष से कम सज़ा हो सके ऐसा नहीं है', ऐसी बात करूँ। फिर वकील कम करने का कहे, तब मैं चार वर्ष, फिर तीन वर्ष, दो वर्ष, ऐसे करतेकरते अंत में छह महीने की सज़ा दूँ । इससे वह जेल में तो जाएगा, लेकिन सुखी होगा। मन में सुखी होगा कि छह महीने में ही पूरा हो गया, यह तो मान्यता का ही दुःख है। यदि उसे पहले से ही ऐसा कहा जाए कि छह महीने की सज़ा होगी तो उसे वह बहुत ज़्यादा लगेगा।