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________________ आप्तवाणी-३ १४५ 'हमें तो इसी के इसी कमरे में और इसी के साथ ही रात को पड़े रहना है, वहाँ झगड़ा करना कैसे पुसाए?' जीवन जीने की कला क्या है कि संसार में बैर न बंधे और छूट जाएँ। तो ये साधु-संन्यासी भी भाग जाते हैं न? भागना नहीं चाहिए। यह तो जीवन संग्राम है, जन्म से ही संग्राम शुरू! वहाँ लोग मौज-मज़े में पड़ गए हैं! घर के सभी लोगों के साथ, आसपास, ऑफिस में सब लोगों के साथ समभाव से निकाल करना। नहीं भाए, घर में ऐसा भोजन थाली में आए, वहाँ समभाव से निकाल करना। किसीको परेशान मत करना, जो थाली में आए, वह खाना। जो सामने आया वह संयोग है और भगवान ने कहा है कि संयोग को धक्का मारेगा तो वह धक्का तुझे लगेगा! इसलिए नहीं भाए. ऐसी चीज़ परोसी हो, फिर भी हम उसमें से दो चीजें खा लेते हैं। नहीं खाएँ, तो दो लोगों के साथ झगड़े होंगे। एक तो जो लाया, जिसने बनाया, उसके साथ झंझट होगी, उसे तिरस्कार लगेगा, और दूसरी तरफ खाने की चीज़ के साथ। खाने की चीज़ कहती है कि 'मैंने क्या गुनाह किया? मैं तेरे पास आई हूँ, और तू मेरा अपमान किसलिए करता है? तुझे ठीक लगे उतना ले, लेकिन अपमान मत करना मेरा।' अब क्या उसे हमें मान नहीं देना चाहिए? हमें तो कोई दे जाए, तब भी हम उसे मान देते हैं। क्योंकि एक तो मिलता नहीं है और मिल जाए तो मान देना पड़ता है। यह खाने की चीज़ दी और उसकी आपने कमी निकाली तो इससे सुख घटेगा या बढ़ेगा? प्रश्नकर्ता : घटेगा। दादाश्री : जिसमें घटे वह व्यापार तो नहीं करोगे न? जिससे सुख घटे ऐसा व्यापार ही नहीं करना चाहिए न? मुझे तो बहुत बार नहीं भाती हो ऐसी सब्जी हो, वह खा लेता हूँ और ऊपर से कहता हूँ कि आज की सब्जी बहुत अच्छी है। प्रश्नकर्ता : वह द्रोह नहीं कहलाता? न भाता हो और हम कहें कि भाता है, तो वह गलत तरह से मन को मनाना नहीं हुआ?
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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