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________________ आप्तवाणी - ३ की कला नहीं कहलाती । जीवन जीने की कला तो, कोई मनुष्य अच्छा जीवन जी रहा हो, उसे आप कहो कि आप यह किस तरह जीवन जीते हो, ऐसा कुछ मुझे सिखाओ। मैं किस तरह चलूँ, तो वह कला सीख सकता हूँ? उसके कलाधर चाहिए, उसका कलाधर होना चाहिए, उसका गुरु होना चाहिए। लेकिन इसकी तो किसीको पड़ी ही नहीं है न ! जीवन जीने की कला की तो बात ही खत्म कर दी ? हमारे पास रहे तो उसे यह कला मिल जाए। फिर भी, पूरे जगत् को यह कला नहीं आती ऐसा हमसे नहीं कहा जा सकता। परंतु यदि कम्पलीट जीवन जीने की कला सीखे हुए हों न तो लाइफ इज़ी रहे, परंतु धर्म तो साथ में चाहिए ही । जीवन जीने की कला में धर्म मुख्य वस्तु है । और धर्म में भी अन्य कुछ नहीं, मोक्षधर्म की भी बात नहीं, मात्र भगवान के आज्ञारूपी धर्म का पालन करना है । महावीर भगवान या कृष्ण भगवान या जिस किसी भगवान को आप मानते हों, उनकी आज्ञाएँ क्या कहना चाहती हैं, वे समझकर पालो। अब सभी नहीं पाली जा सकें तो जितनी पाली जा सकें, उतनी ठीक। अब आज्ञा में ऐसा हो कि 'ब्रह्मचर्य पालना' और आप शादी कर लो तो वह विरोधाभास हुआ कहलाएगा। असल में वे ऐसा नहीं कहते कि आप ऐसा विरोधाभासवाला करना । वे तो ऐसा कहते हैं कि 'हमारी जितनी आज्ञाएँ तुझ से एडजस्ट हो पाएँ, उतनी एडजस्ट कर।' आप से दो आज्ञाएँ एडजस्ट नहीं हुई तो क्या सभी आज्ञाएँ रख देनी चाहिए? आपसे नहीं हो पाता, इसीलिए क्या छोड़ देना चाहिए? आपको कैसा लगता है? दो नहीं हो सकें लेकिन दूसरी दो आज्ञाएँ पाल सकें, तो भी बहुत हो गया। १३५ I लोगों को व्यवहारधर्म भी इतना ऊँचा मिलना चाहिए कि जिससे लोगों को जीवन जीने की कला आए । जीवन जीने की कला आए, उसे ही व्यवहारधर्म कहा है । कोई तप, त्याग करने से वह कला नहीं आती। यह तो अजीर्ण हुआ हो, तो कुछ उपवास जैसा करना । जिसे जीवन जीने की कला आ गई उसे तो पूरा व्यवहारधर्म आ गया, और निश्चयधर्म तो डेवेलप होकर आए हों, तो प्राप्त होता है और इस अक्रम मार्ग में तो निश्चयधर्म ज्ञानी की कृपा से ही प्राप्त हो जाता है ! 'ज्ञानीपुरुष' के पास तो अनंत ज्ञानकलाएँ होती हैं और अनंत प्रकार की बोधकलाएँ होती
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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