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आप्तवाणी-३
प्रश्नकर्ता : अज्ञानता कब होती है? ज्ञान की हाजरी में ही न?
दादाश्री : हाँ, ज्ञान है तो अज्ञान है। जैसे कोई दारू पिया हुआ आदमी हो, वह चंदूलाल सेठ हो और बोले कि 'मैं सयाजीराव गायकवाड हूँ,' तभी से हम नहीं समझ जाएँ कि इसे दारू का अमल है? उसी प्रकार यह अज्ञान का अमल है।
प्रश्नकर्ता : अज्ञान ज्ञानमय हो जाए तो?
दादाश्री : तब उसे अज्ञान नहीं कह सकते। फिर तो ज्ञानमय परिणाम ही बरतते रहेंगे। और जब तक अज्ञान है, तब तक अज्ञानमय परिणाम ही बरतते रहेंगे। फिर तप करे, जप करे, शास्त्र पढ़े या चाहे कुछ भी क्रिया करे, लेकिन उससे कर्म ही बंधेगे। लेकिन वे कर्म भौतिक सुख देनेवाले होते हैं।
प्रश्नकर्ता : आत्मा का इसमें दोष नहीं है, तो उसे बंधन क्यों होता है?
दादाश्री : खुद का दोष कब कहलाता है कि खुद संपूर्ण दोषित हो तभी दोष कहलाता है। नैमित्तिक दोष को दोष नहीं कहते। मेरे धक्के से ही आपको धक्का लगा और उससे उसे लगा, इसलिए वह व्यक्ति आपको गुनहगार मानता है। इसी प्रकार आत्मा खुद इस भाव का कर्ता नहीं है लेकिन इन नैमित्तिक धक्कों के कारण, 'साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स' के कारण होता है।
प्रश्नकर्ता : 'साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स' चेतन पर लागू होता है या अचेतन पर?
दादाश्री : मान्यता पर लागू होता है, प्रतिष्ठित आत्मा पर लागू होता है। प्रतिष्ठित आत्मा में भी बहुत शक्ति है। आप, चंदूलाल यहाँ पर बैठेबैठे शारदाबहन के लिए थोड़ा-सा भी उल्टा विचार करो तो वे उन्हें घर पर पहुँच जाएँगे, ऐसा है!
प्रश्नकर्ता : आपके और हमारे प्रतिष्ठित आत्मा में क्या फर्क है?