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संपूर्ण ज्ञानी छुपे नहीं रह सकते। खुद जो सुख प्राप्त किया है, उसे दुनिया को बाँटने के लिए दुनिया के साथ ही रहते हैं। मुमुक्षु तो 'ज्ञानी' के नेत्र देखते ही परख लेते हैं।
कोई गालियाँ दे, जेब काटे, हाथ काटे, कान काटे, फिर भी रागद्वेष नहीं हों, जहाँ अहंकार और ममता नहीं हैं वहाँ पर चैतन्य सत्ता का अनुभव है, ऐसा समझ में आता है!
पेरालिसिस में भी आत्मसुख नहीं जाए, दुःख को सुख बना दे, वही आत्मानुभव। जब मैं कौन हूँ' का भान होता है, तब आत्मानुभव होता है।
'थ्योरिटिकल' अर्थात् समझ, और अनुभव तो 'प्रेक्टिकल' वस्तु है। अक्रममार्ग से आत्मानुभव एक घंटे में ही हो जाता है!!! वर्ना उसका करोडों जन्मों तक भी, लाख साधना करने पर भी ठिकाना नहीं पड़े !!!
आत्मा का लक्ष्य निरंतर रहे, वही आत्मासाक्षात्कार। हर्ष-शोक के कैसे भी संयोगों में हाज़िर रहकर सेफसाइड में रखे, वही ज्ञान है।
कंकड़ को जो जान ले, वह गेहूँ को जान लेगा। असत् को जो जान ले, वह सत् को जान लेगा। अज्ञान को जो जान ले, वह ज्ञान को जान लेगा। आत्मानुभव किसे होता है?
पहले जिसे 'मैं चंदूलाल हूँ' का भान था, उसे ही अब 'मैं शुद्धात्मा हूँ' का भान होता है, उसे ही आत्मानुभव होता है।
विचारों द्वारा उत्पन्न हुआ ज्ञान, वह शुद्ध आत्मज्ञान नहीं होता है, विचार स्वयं आवरणकारी हैं। आत्मा निर्विचार स्वरूप है। विचार और आत्मा बिल्कुल भिन्न हैं। आत्मा का स्वरूप मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार, शब्द
और विचार के स्वरूप से न्यारा है। ज्ञान-दर्शन-चारित्र, ऐसा जिसका स्वरूप है और परमानंद जिसका स्वभाव है, ऐसा आत्मा जानना है।
___ 'चंदूलाल' प्रयोग है और 'शुद्धात्मा' खुद प्रयोगी है। प्रयोग को ही प्रयोगी मानकर बैठने का परिणाम, चिंता और दुःख!