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________________ खुद आत्मा हुए बिना ज्ञाता-दृष्टा किस तरह से कहलाएगा। जब तक निज स्वरूप का भान नहीं होता, तब तक ज्ञाता-दृष्टापन इन्द्रियज्ञान के आधार पर हैं, अतीन्द्रियज्ञान के आधार पर ही यथार्थ ज्ञाता-दृष्टा पद में आया जा सकता है। ज्ञान और आत्मा अभेदस्वरूप से हैं, मिथ्यादृष्टि उठ जाए और सम्यक् दृष्टि हो जाए तब यथार्थ ज्ञान का स्वरूप समझ में आता है, जो बाद में ज्ञानीपुरुष' के सत्संग द्वारा फ़िट होते-होते ज्ञान-दर्शन बढ़ते-बढ़ते प्रवर्तन में आता है और जब केवल आत्मप्रवर्तन में आएगा, जहाँ पर ज्ञानदर्शन के अलावा अन्य कुछ भी प्रवर्तन नहीं है, वह केवलज्ञान है। जगत् में जो ज्ञान चल रहे हैं, मंत्र, जप, शास्त्रज्ञान, ध्यान, योग, कुंडलिनी, ये सभी इन्द्रियज्ञान हैं, भ्राँति ज्ञान हैं। इनसे संसार में ठंडक रहती है, मोक्ष तो अतीन्द्रियज्ञान से हैं! शास्त्रज्ञान अर्थात् श्रुतज्ञान या स्मृतिज्ञान, आत्मज्ञान नहीं है। पुस्तक में या शब्द में चेतन नहीं है, हाँ, स्वंय परमात्मा जहाँ पर प्रकट हो गए हैं ऐसे ज्ञानी की या तीर्थंकरों की वाणी परमात्मा को स्पर्श करके निकली होने के कारण अपने सोए हुए चेतन को जगा देती है! 'सर्वधर्मान् परित्यजय, मामेकं शरणं व्रज।'- देह के धर्म, मन के धर्म, वाणी के धर्म या जो परधर्म हैं, वे भयावह हैं, उन सभी को छोड़कर सिर्फ मेरे यानी कि आत्मा के धर्म में आ जा। मेरे अर्थात् जो मुरलीवाले दिखते हैं, वे नहीं, परन्तु मेरे अंदर बैठे हुए परमात्मा स्वरूप की शरण में आने के लिए कहा है!!! निज स्वरूप का अज्ञान, वही भ्रांति और वही माया है। 'खुद जो नहीं है' उसकी कल्पना होना, वही भ्रांति! जो शब्दप्रयोग नहीं है, अनुभवप्रयोग है ऐसे निज स्वरूप को जानना है। मूल बात को समझना है। समझ से ही मोक्ष है। संयोगों के दबाव से भ्रांति उत्पन्न हो गई। वास्तव में आत्मा को भ्रांति नहीं है, आत्मा गुनहगार नहीं है। अज्ञानता से गुनहगार भासित होता है। 14
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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