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आप्तवाणी-३
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मन-वचन-काया की आदतें और उनका स्वभाव
मन-वचन-काया की आदतें और उनके स्वभाव को 'शुद्धचेतन' जानता है और खुद के स्व-स्वभाव को भी 'शुद्धचेतन' जानता है। क्योंकि वह स्व-पर प्रकाशक है।
आत्मा का स्वभाव मोक्षगामी है, ज्ञाता-दृष्टा है। और स्वरूप ज्ञान के बाद आप अपने स्वभाव को जानते हो और इन मन-वचन-काया की आदतों को भी जानते हैं। मन ऐसा है, वाणी की आदत ऐसी है, सामनेवाले को अप्रिय लगे ऐसी है, खराब भाषा है, ऐसा सब आप जानते हो या नहीं जानते? आप यह भी जानते हो और 'वह' भी जानते हो। क्योंकि आप स्व-पर प्रकाशक हो। खुद को, 'स्व' को भी प्रकाशमान कर सकता है और पर को भी प्रकाशमान कर सकता है। अज्ञानी मनुष्य सिर्फ 'पर' को ही प्रकाशमान कर सकता है, स्व को प्रकाशमान नहीं कर सकता। उसे ऐसा होता ज़रूर है कि मेरा मन बहुत खराब है, लेकिन वापस जाए कहाँ? वहीं के वहीं रहना पड़ता है। जब कि आत्माज्ञानवाला तो जुदा रहता है।
प्रश्नकर्ता : आदतें और उनका स्वभाव, वह समझ में नहीं आया।
दादाश्री : मन-वचन-काया की आदतें ही नहीं कहा है, साथ में उनका स्वभाव भी कहा है! स्वभाव अर्थात् कोई-कोई आदत खूब मोटी होती है, कोई आदत बिल्कुल पतली होती है, नाखून जितनी ही पतली होती है, वह एक या दो बार प्रतिक्रमण करने से खत्म हो जाती है। और जो आदत खूब मोटी होती है, उसके तो खूब प्रतिक्रमण करें, छीलते रहें तब वह घिसती है!
___मन-वचन-काया की जो आदते हैं, वे तो मरने पर ही छूटें ऐसी हैं, लेकिन उनका जो स्वभाव है, उसे घिस देना चाहिए। पतले रस से बंधी हुई आदतों के तो दो-पाँच बार प्रतिक्रमण करोगे तो वे खत्म हो जाएँगी, लेकिन गाढ़ रुचिवाली के तो पाँच सौ-पाँच सौ बार प्रतिक्रण करने पड़ेंगे।
और कुछ गांठें, लोभ की गांठें तो इतनी मोटी होती हैं कि रोज़ दो-दो, तीन-तीन घंटे लोभ के प्रतिक्रमण करता रहे तो भी छः वर्षों में भी पूरी