________________
आप्तवाणी-३
१०१
प्रश्नकर्ता : आत्मा असंग है, फिर भी शरीर में किसलिए रहना पड़ता है?
दादाश्री : देह का संग तो तीर्थंकरों को भी रहता है। उन्हें भी कान में कीलें खोंसी गईं, उनका भी वेदन करना पड़ा, वह भी हिसाब है। देह का आयुष्य कर्म हो, वह पूरा करना पड़ता है, फिर मोक्ष में जाया जा सकता है। देह में रहने के बावजूद भी असंग और निर्लेप रहा जा सके, ऐसा वीतरागों का विज्ञान है !
यदि तू शुद्धात्मा है तो 'संसार में हूँ' ! ऐसी शंका मत रखना। आत्मा : निर्लेप
मन-वचन-काया के तमाम लेपायमान भाव जो आते हैं, उनसे 'शुद्धचेतन' सर्वथा निर्लेप ही है।
मन के जो भाव उत्पन्न होते हैं, विचार उत्पन्न होते हैं, वे अज्ञान दशा का स्पंदन हैं। ज्ञानदशा में स्पंदन बंद होने पर मन उत्पन्न नहीं होता । वचन भी अज्ञानदशा का स्पंदन है । काया भी अज्ञानदशा का स्पंदन है । अज्ञानदशा में उत्पन्न हुए स्पंदन आज डिस्चार्ज स्वरूप में ही हैं । डिस्चार्ज में परिवर्तन हो ही नहीं सकता, उसकी तरफ उदासीन भाव से रहना चाहिए। ज्ञानदशा के बाद स्पंदन नहीं होने से मन-वचन-काया का उद्भव नहीं होता। मन विवाह दिखाए या मरण दिखाए तो उन दोनों में 'मैं' उदासीन हूँ, वाणी कठोर स्वरूप से निकले या सुंदर स्वरूप से निकले, तो भी 'मैं' उदासीन ही हूँ। वाणी कठोर स्वरूप से निकले और सामनेवाले को दुःख हो तो उस अतिक्रमण का प्रतिक्रमण 'मैं' करवाता हूँ।
मन-वचन-काया के भाव अर्थात् पुद्गल के जो भाव उत्पन्न होते हैं, उन पर से, माना हुआ आत्मा खुद के भाव करता है, उससे संसार उद्भव हो जाता है। मन-वचन-काया के जो-जो भाव होते हैं, वे सभी पुद्गल के भाव हैं, शुद्ध चेतन के नहीं हैं । इतना ही जो समझ गया, उसका काम हो गया।
साइन्स क्या कहता हैं कि ये सोना और तांबा हैं, तो इस सोने का