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आप्तवाणी-३
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अज्ञानदशा में भी मनुष्य आत्मा का शुभ उपयोग कर सकता है। गलत हो जाए तब शास्त्रों के आधार पर 'ऐसा नहीं करना चाहिए' ऐसा कहे तो वह आत्मा का उपयोग कहलाता है। मंदिर या जिनालय में जाए, शास्त्र पढ़े, वह सारा शुभ उपयोग कहलाता है।
प्रत्यक्ष ज्ञानीपुरुष' की आज्ञा का पालन करना, वह 'शुद्ध उपयोग' कहलाता है। जहाँ पर शुद्ध उपयोग होता है, वहाँ पर अविरति के साथ संवरपूर्वक निर्जरा (दोबारा कर्म बीज नहीं डलें और कर्म फल पूरा हो जाए) होती रहती है। आपका यदि शुद्ध उपयोग रहेगा तो सामनेवाला भले ही किसी भी उपयोग में हो, फिर भी वह उपयोग आपको स्पर्श नहीं करेगा।
'ज्ञानीपुरुष' निरंतर शुद्ध उपयोग में ही होते हैं। 'ज्ञानी' निग्रंथ होते हैं, इसलिए एक क्षणभर के लिए भी उनका उपयोग अन्य कहीं अटकता नहीं है। मन की गाँठ फूटे, तब गाँठवाला तो पंद्रह मिनट, आधा घंटे तक एक ही वस्तु में रमणता करता है, 'ज्ञानी' कहीं भी एक क्षण के लिए भी अटकते नहीं हैं, इसलिए उनका उपयोग निरंतर फिरता रहता है, उनका उपयोग बाहर नहीं जाता। 'ज्ञानी' गृहस्थदशा में रहते हैं लेकिन गृहस्थ नहीं होते, निरंतर वीतरागता, वही उनका लक्षण! हमारा उपयोग में उपयोग रहता है।
प्रश्नकर्ता : हम आपसे प्रश्नोत्तरी करते हैं, तब आप किसमें रहते हैं?
दादाश्री : हम उसके ज्ञाता-दृष्टा रहते हैं, वही हमारा उपयोग हैं। ये शब्द निकल रहे हैं, वह रिकार्ड बोल रही है, उससे हमें कोई लेनादेना नहीं है। उस पर उपयोग रहता है, इसलिए हमें पता चल जाता है कि कहाँ पर भूल हुई और कहाँ उपयोग नहीं रख पाते हैं। यह रिकार्ड सुनो तो आपको कैसा स्पष्ट समझ आता है कि इसमें यह भूल है और यह करेक्ट है?! वैसा ही, जब हमारी वाणी की रिकार्ड बज रही होती है, तब हमें भी रहता है।
पाँचों इन्द्रियों का एट-ए-टाइम उपयोग रखें, वह शुद्ध उपयोग।