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उपोद्घात
खंड : १ आत्म विज्ञान अनंत काल से अनंत लक्ष्य बींधे, किन्तु 'खुद कौन है' वही लक्ष्य नहीं साधा जा सका। सच्चा मार्ग ही 'मैं कौन हूँ' की शोध का है या फिर उस रास्ते को दिखानेवाले भी सच्चे मार्ग की ओर चलनेवाले कहे जा सकते हैं। पेपर पर बनाया हुआ दीया प्रकाश नहीं देता है, मात्र दीये की रूपरेखा ही दे सकता है। प्रकाश तो, प्रत्यक्ष दीया ही देता है! अर्थात् आत्मज्ञान की प्राप्ति प्रकट प्रत्यक्ष 'ज्ञानीपुरुष' के माध्यम से ही संभव है।
तमाम शास्त्र एक ही आवाज़ में बोल उठे, 'आत्मज्ञान जानो!' वह शास्त्र में नहीं समाया है, वह तो ज्ञानी के हृदय में समाया हुआ है।
अनंत प्राकृत अवस्थाओं में उलझे हुए निजछंद से, किस तरह उसमें से बाहर निकलकर आत्मरूप हो पाएगा?! जो-जो क्रिया करके, तप, जप, ध्यान, योग, सामायिक करके जो स्थिरता प्राप्त करने जाता है, वह तो स्वभाव से ही चंचल है, वह किस तरह से स्थिर हो सकेगा? 'मूल (निश्चय) आत्मा' स्वभाव से ही अचल है इतनी ही समझ फ़िट कर लेनी है! मरण के भय के कारण कोई खुद दवाई का मिक्स्चर बनाकर नहीं पीता। और आत्मा के बारे में तो खुद मिक्स्चर बनाना अनंत जन्मों के मरण को आमंत्रण देता है! यही स्वच्छंद है, अन्य क्या?
ज्ञानी की आज्ञा के बिना आत्मा की आराधना हो पाना असंभव है! 'ज्ञानी' तो संज्ञा से संकेत में समझा देने की क्षमता रखते हैं! जो शब्द स्वरूप नहीं, जहाँ शब्द की ज़रूरत नहीं, जहाँ कोई माध्यम नहीं है, जो मात्र स्वभाव स्वरूप है, केवलज्ञान स्वरूप है, ऐसे आत्मा का लक्ष्य अनंत भेदें से, आत्मविज्ञानी ऐसे 'ज्ञानीपुरुष' के अलावा अन्य कोई बैठा सके, ऐसा नहीं है।
आत्मा ज्ञानस्वरूप नहीं है, विज्ञान स्वरूप है। जो आत्मविज्ञान को जाने वह 'एब्सोल्यूट' आत्मा प्राप्त करता है। भौतिक विज्ञान बरसों बरस
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