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________________ ७६ आप्तवाणी-३ दादाश्री : टंकोत्कीर्ण, वह साइन्टिफिक शब्द है। लोकभाषा का शब्द नहीं है, ऋषभदेव भगवान का कहा हुआ शब्द है। पंडितों की समझ में आ सके, ऐसा नहीं है। फिर भी मैं संक्षिप्त में स्थूल भाषा में समझाता हूँ। इस पुद्गल को और आत्मा को चाहे कितना भी बिलोते रहें, तो भी वे कभी भी एकाकार-यानी की कम्पाउन्ड नहीं बन जाते। सदैव मिक्स्चर के रूप में ही रहता है। कम्पाउन्ड बन जाए तो आत्मा का मूल गुणधर्म बदल जाएँगे, लेकिन मिक्स्चर में नहीं बदलते। तेल और पानी को चाहे कितना भी मिक्स करने जाएँ, फिर भी दोनों एकाकार नहीं होते। मूल वस्तु के रूप में आत्मा और पुद्गल एकाकार नहीं होते। अतः आत्मा वस्तु के रूप में है और अविनाशी है, और आत्मा के अलावा अन्य वस्तुएँ भी हैं कि जो अविनाशी हैं। वे सब इकट्ठी हुई हैं, लेकिन एकाकार नहीं हुई हैं और एकाकार हो भी नहीं सकतीं। क्योंकि हर एक मूल तत्व टंकोत्कीर्ण स्वभाव का है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को कुछ नहीं कर सकता, वह टंकोत्कीर्ण स्वभाव के कारण है। इस पुद्गल तत्व का स्वभाव ऐसा अलग ही प्रकार का है कि जो यह सब उत्पन्न कर देता है! वहाँ पर मति नहीं पहुँच सकती। आत्मा की मात्र बिलीफ़ बदलती है। इसमें 'कल्प' से विकल्प बने, इसी वजह से यह देह और संसार उत्पन्न हो जाता है। फिर भी इसमें आत्मा खुद स्वभावपरिणामी ही रहता है, कभी भी स्वभाव चूकता नहीं है। टंकोत्कीर्ण शब्द तो बहुत बड़ा है, किसीकी बिसात नहीं है इसका संपूर्ण अर्थ करने की। अर्थ करते हैं, लेकिन हर कोई अपनी भाषा में करता है। 'ज्ञानीपुरुष' अंतिम भाषा में समझाते हैं, लेकिन अंतिम भाषा में शब्द नहीं निकलते। क्योंकि मूल वस्तु तक पहुँचने के लिए शब्द नहीं होते। हम जो बोलते हैं, वे संज्ञासूचक शब्द हैं, बाकी मूल वस्तु तो शब्दातीत है। आत्मा शब्द रखा गया है, वह भी संज्ञासूचक है। बाकी आत्मा वस्तु ही ऐसी है कि जिसका नाम नहीं है, रूप नहीं है। टंकोत्कीर्ण, वह परमार्थ भाषा का शब्द है और स्वानुभव उसका प्रमाण है।
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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