________________
आप्तवाणी-३
हैं। वास्तव में राग-द्वेष, वह सिर्फ पौद्गलिक आकर्षण और विकर्षण ही है । राग आकर्षण है और द्वेष विकर्षण है ।
७४
जो प्रेम अगुरु-लघु स्वरूपी है, वही परमात्मा प्रेम है। परमात्मा अगुरु-लघु प्रेम स्वरूपी है । जो प्रेम बढ़े नहीं, घटे नहीं, वह परमात्म प्रेम है। जो घड़ीभर में चढ़े और घड़ीभर में उतरे, वह प्रेम नहीं है, लेकिन आसक्ति है।
प्रश्नकर्ता : अगुरु-लघु स्वभाव सभी द्रव्यों में सामान्य है?
दादाश्री : हर एक द्रव्य में अगुरु-लघु स्वभाव एक सामान्य गुण है । लेकिन प्रकृति, जो विकृत स्वभाववाली है, वह गुरु-लघु स्वभाववाली होती है। जगत् में जो शुद्ध परमाणु हैं, वे अगुरु-लघु स्वभाववाले हैं। मनुष्य जब भाव करता है तब परमाणु खिंचते हैं, तब प्रयोगसा कहलाता है । उसके बाद मिश्रसा होता है। मिश्रसा फल देकर जाता है, उसके बाद वह वापस विश्रसा अर्थात् शुद्ध परमाणु बन जाते हैं। मिश्रसा और प्रयोगसा, वे गुरुलघु स्वभाववाले हैं और विश्रसा परमाणु अगुरु -लघु स्वभाववाले हैं।
प्रश्नकर्ता : अगुरु-लघु स्वभाव अर्थात् हानि - वृद्धि करवाते हैं ?
दादाश्री : नहीं, अगुरु- लघु स्वभाव अर्थात् बाहर हानि होती है, वृद्धि होती है, लेकिन 'खुद' अगुरु-लघु स्वभाव में आ जाता है। हर एक शुद्ध तत्व में अगुरु - लघु स्वभाव सामान्य है।
प्रश्नकर्ता : आत्मा का अगुरु-लघु स्वभाव अर्थात् किसी भी प्रदेश को बाहर नहीं जाने दे, वैसा ?
दादाश्री : हाँ, उसके प्रदेश से बाहर नहीं जाने देता, यानी कि स्थिरता नहीं छोड़ता ।
क्रोध- - मान-माया-लोभ, राग-द्वेष, ये आत्मा के अन्वय गुण नहीं हैं, व्यतिरेक गुण हैं। अन्वय गुण अर्थात् सहचारी गुण । हमेशा साथ में रहनेवाले गुण । यदि राग-द्वेष अन्वय गुण होते तो राग-द्वेष सिद्ध भगवंतों को भी नहीं छोड़ते। लेकिन ये तो व्यतिरेक गुण हैं यानी कि आत्मा की हाज़िरी से पुद्गल में उत्पन्न होनेवाले गुण ! जिस प्रकार सूर्यनारायण की हाज़िरी