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आप्तवाणी-३
देखने-जानने में किसी प्रकार की भूल नहीं हो, उसीको ज्ञाता-दृष्टा कहते हैं।
"अनंता ज्ञेयों को जानने में परिणामित हुई अनंती अवस्थाओं में 'शुद्ध चेतन', संपूर्ण शुद्ध है, सर्वांग शुद्ध है।" ज्ञेयों को जानने में किसी प्रकार की परेशानी नहीं है। आत्मा का ज्ञेयों के साथ में राग-द्वेष से बंधन है और वीतरागता से मुक्त ही है। भले ही देह हो, मन हो, वाणी हो, लेकिन उन ज्ञेयों में आत्मा वीतरागता के कारण मुक्त है।
पर्याय अनंत हैं, उसमें घबराना क्या? सिर पर करोड़ों बाल हैं, लेकिन एक कंघा घुमाया की ठिकाने पर आ जाते हैं!
आत्मा : ज्ञान क्रिया
ज्ञान और दर्शन की क्रिया में भगवान को नुकसान ही क्या है? अज्ञान क्रिया में परेशानी है। ज्ञान क्रिया में तो थकान होती ही नहीं। भगवान क्रियाशील हैं, लेकिन ज्ञान क्रिया के क्रियाशील हैं। शुद्ध चेतन की सक्रियता है, लेकिन वह उनकी खुद की स्वाभाविक सक्रियता है, उसमें थकान नहीं होती। शीशे में प्रतिबिंब के रूप में देखो, उसमें शीशे को क्या मेहनत करनी पडती है? भगवान भी ऐसे ही है! पूरा जगत् प्रतिबिंब के रूप में दिखता है, वैसे शेष शैयावाले भगवान है! शेष शैयावाले किसलिए कहा है? अरे, पर-रमणता करेगा तो साँप काट खाएगा!
आत्मा खुद अनंतकाल से वीतराग ही है, कभी भी उसके गुणधर्म बदले ही नहीं। आत्मा-अनात्मा अनादि से 'मिक्स्चर' के रूप में रहे हैं, 'कंपाउन्ड' नहीं बन गए। वह तो ऐसा है कि जब 'ज्ञानीपुरुष' दोनों को विभाजित कर दें तब मूल आत्मा का अनुभव होता है। जब तक अनात्मा का एक भी परमाणु आत्मा में रहे, तब तक अनुभव नहीं हो पाता।
द्रव्य, गुण, पर्याय से शुद्धत्त्व प्रश्नकर्ता : तत्व से (के रूप में) आत्मा कैसा है? दादाश्री : आकाश जैसा है। प्रश्नकर्ता : आत्मा के परमाणु हैं क्या?