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संपादकीय
अवर्णनीय, अवक्तव्य, नि:शब्द आत्मतत्व का वर्णन किस तरह से हो सकता है? ऐसी क्षमता है भी किसकी ? वह तो जो निरंतर आत्मरमणता में स्थित हों, ऐसे 'ज्ञानीपुरुष' का काम है कि जो अपनी ज्ञानसिद्ध संज्ञा से मुमुक्षु को आत्मदर्शन करवा देते हैं ! प्रस्तुत ग्रंथ में परम पूज्य 'दादा भगवान' के श्रीमुख से संज्ञाभाषा में निकली हुई वाणी का संकलन किया गया है। प्रत्यक्षरूप से सुननेवाले को तो तत्क्षण ही आत्मदर्शन हो जाता है। यहाँ तो परोक्षरूप से हैं फिर भी इस भावना से प्रकाशित किया जा रहा है कि कितने ही काल से जो तत्वज्ञान संबंधी स्पष्टीकरण अप्रकट रूप में थे, वे आज प्रत्यक्ष 'ज्ञानीपुरुष' परम पूज्य 'दादा भगवान' के योग से प्रकट हो रहे हैं। उसका लाभ मुमुक्षुओं को अवश्य होगा ही, परन्तु यदि (ज्ञानी) साक्षात हों तो संपूर्ण आत्मजागृति की उपलब्धि हो जाती है, वह भी एक घंटे में ही परम पूज्य 'दादा भगवान' के सानिध्य में, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सके ऐसी बात आज सेंकड़ों आत्मार्थियों द्वारा अनुभव की हुई हक़ीक़त है !
केवलज्ञान स्वरूपी मूल आत्मा के बारे में, एब्सोल्यूट आत्मविज्ञान के बारे में, हूबहू समझ तो 'केवल' तक पहुँचे हुए एब्सोल्यूट आत्मविज्ञानी ही दे सकते हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में प्रथम विभाग में आत्मविज्ञान और द्वितीय विभाग में व्यवहारज्ञान का संकलन किया गया है । आत्यंतिक मुक्ति तो तभी संभव है जब आत्मज्ञान और संपूर्ण आदर्श व्यवहारज्ञान, उन दोनों पंखों से उड़ा जाए। एक पंख की उड़ान अपूर्ण है। शुद्ध व्यवहारज्ञान रहित आत्मज्ञान, वह शुष्कज्ञान कहलाता है । शुद्ध व्यवहारज्ञान अर्थात् 'खुद के त्रिकरण द्वारा इस जगत् में किसी भी जीव को किंचित् मात्र दुःख नहीं हो।' जहाँ पर यथार्थ आत्मज्ञान है, वहाँ परिणाम स्वरूप में शुद्ध व्यवहार होता ही है । फिर वह व्यवहार त्यागीवाला हो या गृहस्थीवाला हो, I उसके साथ ही मुक्ति के सोपान चढ़ने में कोई परेशानी नहीं होती । उसके लिए मात्र शुद्ध व्यवहार की ही आवश्यकता है । केवल आत्मा की गुह्य बातें होती हों, परन्तु व्यवहार में यदि रोज़ के टकराव में क्रोध - मान-माया - लोभ
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