SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अक्रममार्ग : ग्यारहवाँ आश्चर्य! हुए, राज्य भोगते हुए और तेरह सौ रानियों के साथ रहकर भी तेरा मोक्ष नहीं जाएगा।" तो वैसा अद्भुत ज्ञान दिया! वही 'अक्रमज्ञान'। वही ऋषभदेव दादा भगवान का ज्ञान 'हम' आपको घंटेभर में ही नक़द दे देते हैं। फिर आपको अपना संसार व्यवहार चलाना, बच्चों की शादी करवानी, सभी करना है। पुराना कुछ भी छोड़ना नहीं है या नया ग्रहण नहीं करना है। छोड़ने की चीज़ हम आपसे छुड़वा देते हैं, अहंकार और ममता छुड़वा देते हैं और 'शुद्धात्मा' ग्रहण करवा देते हैं। फिर त्याग-ग्रहण किसी भी चीज़ का, कुछ करना बाकी नहीं रहता। मैं चंदूलाल,' वह अहंकार उठा लेते हैं और मैं शुद्धात्मा हूँ' वह ग्रहण करवाते हैं। बस, इसमें ग्रहण-त्याग सभी आ जाता है! भरत राजा को तो चौबीसों घंटों के लिए नौकर रखने पड़ते थे। वे हर पंद्रह मिनट बाद घंट बजाकर कहते थे, 'भरत सावधान, सावधान, सावधान।' ताकि यदि भरत राजा ग़ाफ़िल हो गए हों तो उसे सुनकर वापस जागृत हो जाएँ। जबकि आज तो आप ही डेढ़ सौ की नौकरी करते हो, वहाँ आपको वैसा नौकर किस तरह पुसाए? इसलिए 'हम' आपके भीतर ही चौबीसों घंटे का नौकर बिठा देते हैं! वह आपको प्रतिक्षण सावधान करता रहता है! हम अंदर ऐसी प्रज्ञा बिठा देते हैं कि निरंतर ज्ञान और अज्ञान को अलग-अलग ही करती रहती है। 'मैं कौन हूँ?' वह समझ में नहीं आता। अस्तित्व का भान है, लेकिन वस्तुत्व का भान नहीं है कि मैं कौन हूँ। लेकिन यदि वस्तुत्व का एक अंश भी भान हो जाए तो पूर्णत्व तक पहुँचे। वस्तु सहज है। मार्ग सरल है। लेकिन ज्ञान के लिए 'ज्ञानी' का निमित्त चाहिए और तभी ज्ञान प्राप्त होता है। 'ज्ञानी' खुद छूट चुके होते हैं और छुड़वाने में सक्षम होते हैं, वे तरणतारण कहलाते हैं। और इस काल में यह 'अक्रम मार्ग, वह तो ग़ज़ब का कुदरती ही प्रकट हो गया है! यह तो लिफ्ट मार्ग निकला है ! इसलिए पकोड़ियाँ और जलेबियाँ खाते हुए, तप-त्याग किए बगैर निरंतर मोक्षसुख में ही रहा जाता है। क्रमिक मार्ग' में क्रमानुसार तप-त्याग करते-करते, अहंकार को शुद्ध करते-करते आगे बढ़ना है। अहंकार को इतना अधिक
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy