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________________ मूर्तिधर्म : अमूर्तधर्म का गुरु के प्रति महात्म्य कम होता जा रहा था और मूर्ति पर बढ़ता जा रहा था, इसलिए एक आचार्य गुरु का महात्म्य बढ़ाने और समझाने गए कि जिन लोगों की एकाग्रता मूर्ति में हो गई है, वह भले ही स्थापना में रहे लेकिन वे गुरु के पास रहें। लेकिन यह तो मूर्तिपूजा पूरी तरह गायब हो गई और मात्र गुरु पूजन का धार्मिक पंथ बन गया। ४३ अरे ! क्या ऐसा कहना चाहिए कि 'जड़ की शोभायात्रा निकाली ?' जिस मूर्ति पर लोगों को ज़बरदस्त पूज्य भाव है, क्या उसका तिरस्कार करना चाहिए? लेकिन गुरु के प्रति जागृति रहे उसके लिए आपको मूर्ति हटा देनी पड़ी। लेकिन जिसे मूर्ति के प्रति भी एकाग्रता नहीं हुई, उसके लिए तो मूर्ति ही ठीक है । जिसने अमूर्त को जाना नहीं है, अमूर्त को देखा नहीं है, अमूर्त सुना तक नहीं है, अमूर्त उसके भान में भी नहीं है, वे लोग कहाँ जाएँगे? वे बालजीव कहाँ जाएँगे? 'महाराज, इस मूर्ति को आप जड़ कहते हैं तो आपने देखा हो वैसा एक चेतन मुझे बताइए। आपने चेतन कहाँ देखा कि मूर्ति को जड़ कहते हैं? आप खुद ही जड़ हैं न? आप खुद ही मिकेनिकल आत्मा हैं ।' महाराजने कहा, ‘गुरु, वे तो चेतन कहलाते हैं न?' मैंने कहा, 'ना, इन पाँच इन्द्रियों से जो-जो दिखता है, सुनाई देता है, वह सब अचेतन ही है । यह आप नवकार मंत्र बोलते हैं, वह भी मूर्ति ही है न? इन वीतराग भगवान की मूर्ति के प्रति तो लोगों के कैसे ग़ज़ब के भाव हैं! इसलिए उन्हें द्वेष से मत देखना । ' महाराज ने कहा, ‘लेकिन हमारा सिद्धांत मूर्ति को नहीं मानता । ' मैंने कहा, ‘महाराज ज़रा सोचिएगा । मेरी बात गलत हो तो मैं बात को स्वीकार लेता हूँ। आपको दुःख होता हो तो प्रतिक्रमण करते हैं आपका। लेकिन कुछ तो सोचिए । इन बालजीवों को बाद में तो अच्छी तरह चलने दो। आपको जैसा अनुकूल आए वैसा कीजिए । स्थानकवासी तो किसे कहते हैं? जिसे मूर्ति यहाँ (दो भ्रमर के बीच में) पर धारण हो चुकी हो, मानसिक धारणा हो चुकी हो, तब ! '
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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