SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म स्वरूप धर्म किसे कहते हैं? जो धर्म के रूप में परिणामित हो, वह धर्म। यानी कि अंदर परिणामित होकर कषाय भावों (क्रोध-मान-माया-लोभ) को कम करे। कषाय भाव कम हो जाएँ ऐसे नहीं हैं, बढ़े ऐसे हैं। वे खुद अपने आप कम करने से कम नहीं होते, लेकिन धर्म से ही कम होते हैं। धर्म कहाँ से प्राप्त होना चाहिए? 'ज्ञानीपुरुष' से, उनके हस्ताक्षर और मुहरवाला (आज्ञापूर्वक) धर्म होना चाहिए। उसके बाद यदि 'ज्ञानीपुरुष' के ऐसे दो ही शब्दों का उपयोग करने लगे, कि जो शब्द वचनबलवाले होते हैं, भीतर बल देनेवाले होते हैं, जागृति रखवानेवाले होते हैं; तो वे शब्द आवरण भेदकर अंदर की शक्तियाँ प्रकट कर देते हैं। परिणामित हो वह धर्म और परिणामित न हो वह अधर्म। परिणामित क्या होता है? तो वह यह है कि जो, कषाय भावों को हल्का करे, कम करे, हल्के-पतले करे, और जैसे-जैसे वे कषाय भाव कम होते जाते हैं, वैसे-वैसे खुद की शक्ति और आनंद बढ़ते जाते हैं। खुद की सभी शक्तियों का पता चलता है कि ओहोहो! अंदर खुद की कैसी शक्तियाँ हैं ! खुद में इतनी सारी शक्तियाँ कहाँ से आईं? यानी उसे धर्म कहते हैं। वर्ना यह लटू तो वैसे का वैसा ही रहता है, बचपन से ठेठ अरथी निकाले, तब तक वैसे का वैसा ही रहता है, तो उसे धर्म किस तरह कहा जाएगा? धर्म होकर परिणामित हो तब, परिणाम क्या प्राप्त करना है? व्रत, नियम, तप करना सीखे, वह? ना, यह परिणाम नहीं है। क्रोध-मान-माया
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy