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________________ जगत् की अधिकरण क्रिया का संबंध जब उत्पन्न होता है, 'शुद्धात्मा' ज्ञाता-दृष्टा पद में रहे और 'प्रतिष्ठित आत्मा' केवल डिस्चार्ज स्वरूप में रहे, तब नया चार्ज नहीं होता, तब अधिकरण क्रिया संपूर्णतः बंद हो जाती है और अगले जन्म के लिए नया 'प्रतिष्ठित आत्मा' नहीं बनता, फिर जो पिछली गुनहगारीवाले पद का 'प्रतिष्ठित आत्मा' लाए हुए होते हैं, उसका समभाव से निकाल (निपटारा) करना बाकी रहता है। नया चार्ज नहीं होता। उसके कारण डिस्चार्ज होने का समय ही नहीं आता। ___ सिर्फ 'ज्ञानीपुरुष' ही इस अधिकरण क्रिया को सील मार सकते हैं। 'ज्ञानीपुरुष' भ्रांतिरस का विलय कर देते हैं और 'शुद्धात्मा' और 'प्रतिष्ठित आत्मा' दोनों को अलग कर देते हैं। दोनों के बीच लाइन ऑफ डिमार्केशन डाल देते हैं। इसलिए दोनों निरंतर बिल्कुल अलग ही रहते हैं। ज्ञेय-ज्ञाता संबंध में ही रहते हैं। 'प्रतिष्ठित आत्मा' को जो ज्ञेय स्वरूप में जानता है, वह 'शुद्धात्मा' है। 'शुद्धात्मा,' वह स्व-पर प्रकाशक है और 'प्रतिष्ठित आत्मा' परप्रकाशक है। इन्द्रियगम्य ज्ञान, वह 'प्रतिष्ठित आत्मा' है और अतीन्द्रियगम्य ज्ञान, वह 'शुद्धात्मा' है। ये सारी क्रियाएँ जो दिखती हैं, वे 'प्रतिष्ठित आत्मा' की हैं। 'शुद्धात्मा' की इसमें से कोई भी क्रिया नहीं है। 'शुद्धात्मा' की तो केवल ज्ञानक्रिया और दर्शनक्रिया है और परमानंद, वह तो उसका मूल स्वभाव ही है। 'यह मैं हूँ' और 'यह मेरा है,' ऐसी जो प्रतिष्ठा होती रहती है, उससे 'प्रतिष्ठित आत्मा' तैयार होता है। 'मैं' और 'मेरा' गए तो 'प्रतिष्ठित आत्मा' की नयी प्रतिष्ठा नहीं होती, नये कॉज़ेज़ उत्पन्न नहीं होते। नया 'प्रतिष्ठित आत्मा' खड़ा नहीं होता। फिर उसके बाद जो बाकी रहते हैं, वे सिर्फ इफेक्टस् बाकी रहते हैं और वे सब इफेक्टस्, इफेक्टस् के रूप में भोग लिए जाते हैं, फिर बाकी क्या रहा? 'केवल आत्मा!'
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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