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________________ आप्तवाणी-२ नहीं है। आत्मा आत्मा में ही रखा वही सन्यस्त योग! संपूर्ण सन्यासी मतलब धर्म सन्यास। तो यह अपना अंतिम सन्यास है, तो यहाँ आत्मा आत्मा में रहता है, आत्मा शुद्धात्मा में ही बरतता है । अपना यह अलौकिक धर्म है ! इन लौकिक धर्मों में तो आत्मा में से सन्यस्त लेकर देह में डालते हैं I ३८६ कृष्ण भगवान ने कहा है कि ये तीन गुण हों, तभी वह सच्चा सन्यासी है, फिर वह गृहस्थ हो, त्यागी हो या कोई भी हो : १. कर्तृत्व का अभिमान नहीं हो । २. आसक्ति नहीं हो । ३. कामना नहीं हो। यह आसक्ति तो देह का गुण है, वह कैसा है ? जैसे लोहचुंबक और आलपिन का संबंध होता है, उसी तरह देह को फिट (के साथ मैच) हों वैसे परमाणुओं के प्रति देह खिंचता है । उसमें आत्मा को कुछ भी लेनादेना नहीं है, और लोग तो भ्रांति से मानते हैं कि, 'मैं खिंचा । ' हमें तो देह से आसक्ति है और आत्मा से अनासक्त हैं। आत्मा नहीं खिंचता। आत्मा जिसमें तन्मयाकार नहीं होता, उस चीज़ का उसे त्याग बरता कहलाता है । कर्तृत्व का अभिमान, वही आसक्ति है । स्वरूप की प्राप्ति के बाद आपके मन के परिणाम भले ही कितने भी उछलें, फिर भी वे आप पर असर नहीं डालते। 'ज्ञानी' में और आप में फर्क कितना? उपाधि जितना, ज्ञानी को उपाधि नहीं रहती, जबकि आपको उपाधि रहती है !
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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