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________________ आलोचना-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान ३७१ हो तो दिन में हुए अतिक्रमण के रात को प्रतिक्रमण करना।' इसे 'रायशी' कहा है और 'रात के अतिक्रमणों का प्रतिक्रमण दिन में करना।' उसे 'देवशी' कहा है। यह अक्रम मार्ग है इसलिए ज्ञान होने के बाद प्रतिक्रमण करने पड़ते हैं, नहीं तो ज्ञान होने के बाद में फिर प्रतिक्रमण नहीं करने होते, यह स्वरूप का ज्ञान प्राप्त किया, लेकिन भीतर माल स्टॉक में है इसलिए अतिक्रमण होते हैं और उनका प्रतिक्रमण कर लेना पड़ता है। ये प्रतिक्रमण हमें, 'शुद्धात्मा' को, नहीं करने हैं। ये तो इन मन-वचन-काया से करवाने हैं। 'मैं करता हूँ' ऐसा भाव निकल गया इसलिए स्वरूप से शुद्ध है, इसीलिए खुद को प्रतिक्रमण नहीं करने होते। 'शुद्धात्मा' खुद यदि प्रतिक्रमण करेगा, तब तो पोइजन हो जाएगा। 'खुद' 'शुद्धात्मा' प्रतिक्रमण नहीं करता, लेकिन मन-वचन-काया से करवाता है। यह तो अक्रम मार्ग है इसलिए पहले स्वरूपज्ञान में बैठकर फिर कर्जा पूरा करना है। अक्रम मार्ग में तो पहले दुःख और जलन बंद करके फिर कर्जा चुकाना है, जबकि क्रमिक मार्ग में तो कर्जा चुकाते-चुकाते ज्ञान में आते हैं।
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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