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________________ आलोचना-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान ३६१ प्रश्नकर्ता : 'प्रतिक्रमण करने के लिए धार्मिक स्थान में जाना चाहिए,' यह बात सही है? दादाश्री : प्रतिक्रमण तो चाय पीते हुए भी किए जा सकते हैं, नहाते-नहाते भी किए जा सकते हैं। जहाँ देहधर्म है, मनोधर्म है, बुद्धिधर्म है वहाँ स्थान को देखना पड़ता है। लेकिन अपना 'आत्मधर्म' है इसलिए देहधर्म देखने की ज़रूरत नहीं है, कहीं भी प्रतिक्रमण किए जा सकते हैं। कुछ लोग तो नहाने के धर्म को ही धर्म मानते हैं ! उनका धर्म इससे आगे बढ़ा ही नहीं। जिसे देहधर्म होता है, उसमें तो मोह के बहुत से परमाणु थोकबंद होते हैं और उन्हें यदि कोई गालियाँ दे तो उन्हें गाली देनेवाला पूरी तरह से दोषित दिखता है। उसमें यदि कोई थोड़ा डेवेलप्ड हो तो कहेगा कि, 'मेरे कर्म का दोष है।' ये जो निंदा कर रहे हैं, वे मेरे कपडे धो रहे हैं, ऐसा मानकर संतोष मानता है और आगे डेवेलप होता है। पूरे जगत में निमित्त को दोष देने का नियम है। निमित्त को काटने दौड़ते हैं। जबकि अपने यहीं पर, 'भुगते उसी की भूल,' ऐसा नियम है! प्रतिक्रमण के परिणाम कैसे-कैसे! प्रश्नकर्ता : हमें किसी के लिए आसक्ति रहती हो तो उसके लिए प्रतिक्रमण कैसे करने चाहिए? दादाश्री : सामनेवाले व्यक्ति का नाम लेकर उसके आत्मा को याद करके, 'दादा' को याद करके, उस आसक्ति के लिए प्रतिक्रमण करने चाहिए। प्रश्नकर्ता : सामनेवाले व्यक्ति को अपने कारण दु:ख रहता हो तो क्या करना चाहिए? दादाश्री : तो भी अपने को प्रतिक्रमण करने चाहिए। वह तो हमने पहले भूल की थी इसलिए उन्हें चुभता है, भूल से ही बंधे हुए हैं। बंधन राग का हो, द्वेष का हो, कैसा भी हो, उसका प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए। सामनेवाला नम्र और सरल हो तो आमने-सामने माफ़ी माँग लेनी
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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