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________________ ३२० आप्तवाणी-२ ज्ञान और बुद्धि में क्या फर्क है? बुद्धि भेद डालती है, मेरा-तेरा करवाती है, जबकि ज्ञान अभेद बनाता है। बुद्धि-ज्ञान यानी कि इस दुनिया के तमाम शास्त्रों का ज्ञान जाने लेकिन खुद को नहीं जाने तो उस अहंकारी ज्ञान को बुद्धि कहा गया है। और स्वरूप के ज्ञान को जाने तो निरअहंकारीज्ञान हो जाता है, वह ज्ञान है। बुद्धि तो खुद के बच्चों और पत्नी के बीच में भी भेद डलवाती रहती है। भेदबुद्धि जब तक भेदबुद्धि हो तब तक लगता है, 'मैं चंदूलाल और यह रायचंद' और महावीर अलग, नेमीनाथ अलग, कृष्ण अलग, सभी में भेद लगता है, और 'ज्ञानीपुरुष' में भेदबुद्धि नहीं होती, वे आत्मस्वरूप में रहते हैं और सब को अभेद देखते हैं। हमें तो 'सबमें मैं ही बैठा हुआ हूँ' ऐसा रहता है। रियल स्वरूप को जान लें तो अभेदता आती है। वीतराग निष्पक्षपाती होते हैं, उन्हें सबमें अभेदता लगती है। कालचक्र के आधार पर मार खाते रहते हैं, यदि 'ज्ञानीपुरुष' मिल जाएँ तो मार नहीं खानी पड़ती, ज्ञानी मिल जाएँ तो हल आ जाता है। बुद्धि प्रकाशक ज़रूर है, लेकिन पर-प्रकाशक, इनडाइरेक्ट लाइट है, जैसे कि दर्पण में से सूर्य के प्रकाश की किरणें परावर्तित होती हैं, वैसी। जिसका जितना बड़ा दर्पण, उतना ही उसका प्रकाश पड़ता है। कुछ तो ऐसे बेरिस्टर होते हैं कि जो रोज़ के हज़ारों कमाते हैं, क्योंकि दर्पण बड़ा है और कुछ का तो टट्ट चलता ही नहीं है। बुद्धि का फल क्या है? बुद्धि बहुत बढ़े, तब बुद्धू बन जाता है! 'हम में' नाम मात्र भी बुद्धि नहीं है, 'हम' 'अबुध' हैं। कवि ने कहा है न कि, 'भाव, नो, द्रव्य ना जाळा खंखेरी जाणजो अबुध अध्यासे।' अबुध-अध्यास होगा, तब वे जाल हट जाएँगे, बुद्धि से वे जाले नहीं हटेंगे। बुद्धि तो अपना काम करती रहेगी, लेकिन उसका उपयोग नहीं करना
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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