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________________ मन ३१७ मन का स्वभाव कैसा है? सीधी तरह से नहीं मुड़ता और यदि बहला-फुसलाकर मोड़ें तो मुड़ने के बाद वहाँ से नहीं खिसकता, फिर से बदलता नहीं हैं। इसीलिए इन छोटे बच्चे-बच्चियों में अच्छे संस्कार डालने चाहिए, तो फिर वे अच्छे संस्कार जाएँगे नहीं। बच्चों को जो विचार आते हैं वे कार्य-कारण विचार आते हैं, वे विचार आकर तुरंत ही कार्यकारी हो जाते हैं। बड़ा होने के बाद क्रिकेट के विचार आते हैं, फिर भी पढ़ाई कर रहा होता है। मनःपर्याय ज्ञान सभी मनुष्यों का स्वभाव कैसा है कि जब विचार आए, तो उसके लिए कहते हैं, 'मुझे विचार आया।' अरे, तू खुद और विचार दोनों अलग हैं। 'मुझे विचार आया' वह वाक्य इटसेल्फ ही बताता है कि 'मैं' और 'विचार' दोनों अलग हैं। 'मैं विचार कर रहा हूँ' ऐसा नहीं कहता, 'मुझे विचार आ रहे हैं या मेरे ऐसे विचार हैं' ऐसा कहता है। इसलिए विचार, सेल्फ से पूरी तरह से अलग ही हैं। यह तो अलौकिक ज्ञान है! यह तो मन:पर्याय ज्ञान उत्पन्न हुआ है, विचार आएँ और खुद ज्ञाता-दृष्टा रहता है। इस ज्ञान से तो बुद्धि के पर्याय भी देखे जा सकते हैं! मन के विचार तो अज्ञानी को भी दिखते हैं, फिर भी उस पर्याय को जानना है, आत्मा हुए बिना ऐसा नहीं माना जा सकता कि, मनःपर्याय ज्ञान में आ चुके हैं। ये मन के पर्याय निरंतर बदलते हैं, उसके यदि ज्ञातादृष्टा रहें तो वही मन:पर्याय ज्ञान है। जो मन की अवस्थाओं को देख सकते हैं, उन्हें ज्ञानी कहा है। मन का कम्प्रेशन या टेन्शन कितना ऊँचा गया, कितना नीचा गया, कैसा उल्लास आया, कैसा डिप्रेशन आया, उन सभी पर्यायों को देखना, यही मन:पर्याय ज्ञान है। ‘स्वरूप ज्ञान' के बगैर तो अगर मन ज़रा सा भी बताए तो एकाकार हो जाता है- 'मुझे हुआ-मुझे हुआ' करके! मन:पर्याय ज्ञान प्राप्त करने के लिए तो लोग लाख जन्मों तक शिष्य बनने के लिए तैयार हो जाएँगे! क्रमिक मार्ग में साधारण मन:पर्याय ज्ञान होता है और अपने इस अक्रम
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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