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________________ त्याग त्याग दो प्रकार के, (१) अहंकार से त्याग, (२) सहज वर्तन में बरता हुआ त्याग वास्तव में त्याग शब्द में ही अहंकार समाया हुआ है। अहंकार के बिना त्याग हो ही नहीं सकता और इसीलिए ऐसा लक्ष्य में रहा करता है कि मैंने त्याग किया, जबकि बरता हुआ त्याग लक्ष्य में रहता ही नहीं । जब त्याग करने की चीज़ें याद ही नहीं आएँ तब, त्याग को जीत लिया, ऐसा कहा जाएगा । त्याग और अत्याग करने की चीजें भी याद नहीं आतीं तब ऐसा कहा जाएगा कि अत्याग जीत लिया । त्याग बरतता है, ऐसा किसे कहते हैं? जिसे त्याग करने का विचार भी नहीं आता है, उसे । और अत्याग बरतता है, ऐसा किसे कहते हैं ? कि परिग्रह जिनकी स्मृति में - स्व - रमण में भी नहीं होते! मोक्षमार्ग में त्याग की भी शर्त नहीं है और अत्याग की भी कन्डीशन नहीं है ! I इस जगत् में भगवान ने दो ही चीज़ों का त्याग करने के लिए कहा है (१) अहंकार और (२) ममता, अर्थात् मैं और मेरा इन दोनों का त्याग करने के बाद संसार में तुझे त्याग करने का रहा ही नहीं न! भगवान ने कहा है कि एक प्रकार का त्याग वह कहलाता है कि जो उदयकर्म करवाता है, वह त्याग वीतरागतावाला नहीं है । उदयकर्म उपवास करवाता है, सामायिक करवाता है, तो कहता है कि, 'मैंने किया ।' प्रकृति जो-जो जबरन करवाती है वह सभी उदयकर्म के अधीन है। प्रकृति जो त्याग करवाती है, उससे आत्मा पर क्या उपकार ? उसे वीतरागता से त्यागा हुआ नहीं कहा जाएगा। वीतरागता का त्याग, वह अंतरत्याग है उसमें कैफ़ नहीं होता। जब उदयकर्म के अधीन त्याग होता है और कहे कि, 'मैंने त्याग किया, '
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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