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________________ २२० आप्तवाणी-२ सत्संग में महात्मा एक-दूसरे का काम करते हैं, लेकिन अभेद भाव से, खुद का ही हो वैसे। यह बाहर का बोध 'बासी' नहीं है लेकिन 'वासित' है। बासी तो देर से भी पच जाता है, लेकिन यह तो वासनावाला। जहाँ वासना नहीं होती, वहाँ मोक्ष होता है। वासना बोध दो प्रकार के हैं। दूसरों के लिए वासना करे, उसे अच्छा कहा है लेकिन यदि खुद के लिए करे तो उसके लिए तो भगवान ने भी मना किया है। जो सच्चे दिल से व्याख्यान सुनने जाएँ उन्हें अभ्युदय फल मिलता है। सच्चे दिल से सुननेवाले व्याख्यानकारों की भूल नहीं निकालते और व्याख्यान देनेवाले की सच्चे दिल से महावीर भगवान की आज्ञा पालन करने की इच्छा है न! सच्चे दिल से सुनने की इच्छा, उसका मेल कब बैठेगा? कि कभी भी भूल नहीं निकाले तब। यह तो ओवरवाइज़ हो गया हैं, इसलिए भूलें निकालता है। बाहर भले ही कैसा भी सत्संग हो, बुद्धि को कितना भी समझाएँ कि श्रद्धा रख,' लेकिन बुद्धि कितना मानती है? वहाँ पर मन, बुद्धि सब अलग हो जाते हैं। जबकि यहाँ तो बुद्धि खुद ही श्रद्धा रखती है। मनबुद्धि-चित्त और अहंकार चारों एक हो जाते हैं। जहाँ सभी एकमत हो जाएँ, वहीं पर मोक्ष खड़ा है। इन 'दादा' के लिए कवि क्या गाते हैं? ‘परमार्थे सत्संग देता, पोताना पैसा खरची जगहिते गाळी काया, जोता ना ठंडी गरमी।' ये लोग भी कहाँ सर्दी-गरमी देखते हैं? माँ चार बजे उठकर बेटे के लिए पोहे बनाकर नाश्ता बनाती है। वह कहेगी कि, 'मेरे बेटे को स्कूल जाना है इसलिए बना रही हूँ, बच्चे को सुबह नाश्ता तो चाहिए न?' तब बच्चा कहेगा, 'रोज़-रोज़ क्या यही का यही बनाती हो?'
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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