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________________ संग असर २१९ अपनी मेहनत व्यर्थ नहीं जाए, दिन व्यर्थ नहीं बीतें और सत्संग में रहा जा सके ऐसा करना चाहिए। 'इस' सत्संग की अधिकता रही तो काम हो गया। पूरे जगत् पर कुसंग का दबाव है। मंदिर या उपाश्रय में नहीं जा पाते, व्याख्यान में नहीं जा पाते और उसके लिए कढ़ापा-अजंपा भी करते हैं कि जाने की बहुत इच्छा है। मंदिर में भी नहीं जा पाते। कारण क्या है? क्योंकि कुसंग की भरमार में है इसलिए वह जाने नहीं देता और अपने यहाँ तो सत्संग की ही भरमार और कैसे जगत् विस्मृत रहता है! सभी कुछ अनिवार्य है, लेकिन जिसके लिए सत्संग अनिवार्य हो, वह तो ग़ज़ब का पुण्यशाली कहलाता है और फिर वापस आपको अलौकिक सत्संग मिल रहा है। बाहर सभी जगह जगत् में अनिवार्य रूप से कुसंग ही है। अब अनिवार्य रूप से सत्संग आया है, अनिवार्य सत्संग और वह भी घर बैठे आता है! सत्संग में चल-विचल हुए तो भारी जोखिमदारी आ पड़ेगी। व्यवहार में चल-विचलपन चलेगा। इस धर्म में तो अगर चल-विचल हुआ तो आत्मा खो देगा, आवरण लाएगा। जगत् का नियम है कि जहाँ रोज़ाना सत्संग होता हो वहाँ दस-पंद्रह दिनों में वह पुराना लगता है। लेकिन इस जगह पर, जहाँ परमात्मा प्रकट हुए हैं, वहाँ सौ साल बैठो फिर भी सत्संग नित्य अनोखा लगता है, रोज़रोज़ नया लगता है। भगवान ने कहा है कि, 'जहाँ परम ज्योति प्रकट हुई है, वहाँ सत्संग करना।' बाहर तो धोती पाँच दिन पहनते हैं, और फिर ऐसा लगता है कि ऊब गए। बाहर तो बोध वासित लगता है, वासनामय। भगवान ने कहा है कि, 'जहाँ तीर्थंकर या आत्मज्ञानी होते हैं, वहाँ बोध निर्वासनिक होता है।' बाकी, उनके बाद तो बोध वासित ही होता है। किंचित् मात्र भी जिन्हें संसार की वासना है वह बोध वासित कहलाता है, वासनावाला बोध कहलाता है। जो ऐसा बोध दे, उसे खुद को संसार में बड़े बनने की वासना रहती है। ज्ञानी नहीं हों, तब तक वासनावाले बोध का आधार रहता है, यानी कि वासित बोध का आधार रहता है। लेकिन ज्ञानी हों, तब निर्वासनिक बोध का आधार रहता है, और उसी से मोक्ष होता है। यहाँ
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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