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________________ व्यवहारिक सुख-दुःख की समझ १९१ विचार करे तो फिर वैसा असर हो जाता है न? यह तो दुःख इसे मानता है और उसका ही विचार करे, तो उससे तो कुछ होनेवाला नहीं हो, फिर भी वैसा हो ही जाता है। विचारों के असर से ही तो बिगड़ता है सब! जिसका विचार नहीं आता, वह काम सफल होता है। जहाँ विचार आए, उतना बिगड़ा, क्योंकि निराश्रित के विचार हैं न? आश्रित के विचार होते तो अलग था! यह कहे कि, 'वह स्त्री मुझे ऐसा कहती है और यह ऐसा कहती है।' वह स्पर्श नहीं हुआ है, उसे दुःख नहीं कह सकते। यह जो इन्वाइट करते हैं, उसे दुःख नहीं कहा जा सकता। इस बेटे का दु:ख एक-एक सेर ले लेता है। बेटा चला जाता है, तब तू क्यों नहीं चला जाता? लेकिन वहाँ तो नहीं जाता। ज्ञानी तो बहुत समझदार होते हैं, उन्होंने सब तरह से हिसाब निकाल लिए होते हैं। ऐसा काल आता है तो क्या उसमें उन्हें दुःख नहीं आते होंगे? आते हैं। लेकिन सेटिंग करके रखते हैं। पोस्ट ऑफिस में सोर्टिंग के ख़ाने होते हैं न? यह नडियाद का ख़ाना, यह सूरत का ख़ाना, वैसे ही ज्ञानी ऐसी व्यवस्था करके चैन से सो जाते हैं कि यह व्यापार का ख़ाना, यह समाज का ख़ाना, यह ऑफिस का ख़ाना। स्वरूप का ज्ञान मिलने के बाद बिल्कुल भी दु:ख नहीं रहता, ऐसा अगर सिनेमा की सीलिंग(छत) गिर पड़े तो हमें या किसी और को नहीं लगे तो अच्छा। अगर किसी को लग जाए तो 'कोई मरा तो नहीं है, इसलिए अच्छा हुआ,' इस तरह समझ का अवलंबन लेना चाहिए। हमारे कान्ट्रैक्ट के काम में समाचार आए कि पाँच सौ टन लोहा समुद्र में डूब गया तो पहले हम पूछते हैं कि, 'अपना कोई आदमी मर तो नहीं गया न?' मरते तो सब खुद के उदय से हैं, लेकिन अपने निमित्त से नहीं होना चाहिए। जिसका जिस खाते का हो, उस खाते में रख देना चाहिए। जो शरीर
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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