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________________ १३४ आप्तवाणी-२ हुए हों तो तू उन्हें नौकरी पर रखता ही नहीं न? ये तो कर्म के कर्ता बन गए! भगवान ने व्यवहार से कहा था, ड्रामेटिक भाव से करना था लेकिन यह तो 'मैं ही कर रहा हूँ, मेरे सिवा कौन करेगा?' उससे तो कर्मबंधन होता है। और वह भी फिर सिर्फ निकाचित कर्म के बंधन होते हैं, हल्के नहीं। उसे तो हल्के कर्म के बंधन होते हैं और इनको तो पक्की गाँठ! इसमें किसी का दोष नहीं है। सभी आचार्यों, साधुओं सभी की इच्छा है कि भगवान के कहे अनुसार चलना है, लेकिन वैसे संयोग नहीं मिलते। जैसे इस जगत् के लोगों को कैसा होता है कि मेरे घर के लोगों को मुझे सुखी करना है ऐसी भावना है, लेकिन संयोग मिले बगैर सुखी कैसे होंगे? उसी तरह इन साधु-आचार्यों को संयोग नहीं मिलते। हमने आपको स्वरूपज्ञान दिया, उसके बाद क्या आर्तध्यान और रौद्रध्यान होते हैं? प्रश्नकर्ता : ना, दादा, अब नहीं होते। दादाश्री : अभी बेटी की शादी करवाई, तब शादी में कैसी परिणति रही थी? आर्तध्यान और रौद्रध्यान खड़े हुए थे? प्रश्नकर्ता : ना दादा, एक भी आर्तध्यान या रौद्रध्यान खड़ा नहीं हआ। दादाश्री : यह 'अक्रम-ज्ञान' है ही ऐसा। इस ज्ञान से रिलेटिव में धर्मध्यान रहता है और भीतर, रियल में शुक्लध्यान बरतता है। ऐसा ग़ज़ब का आश्चर्यजनक ज्ञान है! क्रमिक मार्ग में जिसके आर्तध्यान और रौद्रध्यान गए वह भगवान पद में आया माना जाता है, तब से भगवान पद की शुरूआत हुई मानी जाती है! धर्मध्यान किसे कहते हैं? आर्त और रौद्रध्यान नहीं हों, तो धर्मध्यान में आया कहलाता है।
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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